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Sunday, 23 December 2018

गुनहगार छूट रहे हैं...न्याय देवी को अपनी आंखों पर बंधी पट्टी खोलने का वक्त आ गया है


जब न्याय देवी की आंखों पर पट्टी बांधी गई होगी तो शायद उस समय ये मंशा रही होगी कि कानून अपने लंबे हाथों से सबूत लेकर आएगा और अदालतों में बैठे न्यायधीश आंखे बंद कर निष्पक्ष होकर फैसला सुनाएंगे। लेकिन अब कानून के हाथ छोटे होते जा रहे हैं और अब वक्त आ गया है कि न्याय देवी को पट्टी खोल देनी चाहिए नहीं तो जैसे 13 साल चले हिंट एंड रन केस के आरोपी छूट गए, आरुषि को किसने मारा ये आज तक पता नहीं पता चल सका,2G स्पेक्ट्रम के आरोपी बरी हो गए और अब सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर केस में सभी 22 आरोपियों को बरी कर दिया गया और अगर ये पट्टी नहीं खोली गई तो ऐसे सबूतों के कमी के चलते गुनहगार छूटते रहेंगे, फिर से गुनाह करने के लिए।
फैसला के वक्त जज द्वारा कही बात जजों की मजबूरी दिखाती है। सीबीआई के जज एसजे शर्मा ने कहा, ''मैं मारे गए तीन लोगों के परिवार के लिए बुरा महसूस कर रहा हूं, लेकिन लाचार हूं। अदालत सबूतों के आधार पर फ़ैसला करती है...दुर्भाग्य से इस केस में सबूत ग़ायब हैं.''
निश्चित ही सबूत जमा करना अदालतों का काम नहीं है ये काम पुलिस का है और पुलिस पर राजनैतिक दवाब कितना होता है ये किसी से छिपा नहीं है। क्या ये भद्दा मजाक नहीं है कि इतने साल हुई सुनवाई के दौरान करीब 200 गवाह पेश किए गए और इसमें से 92 गवाह मुकर गए।
इनमें से एक गवाह का नाम है आजम खान, जिसका कहना है कि राजस्थान पुलिस उस पर दबाव डाल रही है. आजम खान का आरोप है कि सोहराबुद्दीन शेख, गुजरात के पूर्व मंत्री और नरेंद्र मोदी के आलोचक हरेन पांड्या की हत्या में शामिल थे और उन्होंने ये हत्या गुजरात पुलिस अफसर डीजी बंजारा के कहने पर की।
इस मामले में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह मुख्य आरोपियों में से एक थे. एनकाउंटर के समय गुजरात के गृह मंत्री गुलाबचंद कटारिया का नाम मुख्य आरोपी में शामिल था. लेकिन कुछ साल बाद उन्हें क्लीनचि‍ट दे दी गयी. हाल ही में गृह मंत्रालय ने सोहराबुद्दीन मामले की जांच करने वाले गुजरात कैडर के आईपीएस अधिकारी रजनीश राय को सस्पेंड कर दिया।
ये सस्पेंशन हैरान करने वाला है, क्योंकि ये वही राय हैं जिन्होंने इस मामले में 3 आईपीएस अधिकारी डीजी वंजारा, गुजरात कैडर के राजकुमार पांडियन और राजस्थान कैडर के दिनेश एमएन को गिरफ्तार किया था

दूर से देखेंगे तो सबकुछ सामान्य दिखेगा राय का निलंबन भी, आरोपियों का छूटना भी, क्योंकि मीडिया में सबकुछ सामान्य बना दिया गया है। लेकिन 92 गवाहों का अपनी गवाही से मुकर जाना सामान्य बात नहीं है। और जजों का पीड़ितों के लिए सिर्फ बुरा महसूस करना काफी नहीं है बल्कि ये लाचारी है सिस्टम की, ये लाचारी है उस पुलिस की जो राजनैतिक दवाब से आजाद ही नहीं होना चाहती और अक्सर उसी का शिकार बन जाती है और कहीं कोई सुबोध भीड़ के लिए भीड़ के हाथों शहीद कर दिया जाता है। 

Saturday, 22 December 2018

केदारनाथ:एक खूबसूरत फिल्म जो अफवाह का शिकार हुई...


पता नहीं कहां से ये अफवाह उड़ी कि फिल्म केदारनाथ में मंदिर के सामने किसिंग सीन फिल्माया गया है और लोगों ने बिना देखे ये चर्चा शुरू कर दी कि फिल्म में कुछ गलत है।उत्तराखंड में कई जिलों में फिल्मों को बैन कर दिया गया। लेकिन फिल्म देखकर अंदाजा हुआ कि सारी समस्या बिना देखे,बिना सुने प्रतिक्रिया देने की है।
काय पो छे बनाने वाले Abhishek Kapoor की फिल्म शुरू से आखिर तक बांधकर रखने वाली है। Sushant Singh Rajputऔर sara ali khan की एक्टिंग कमाल की है। इंटरवल से पहले की फिल्म जहां उत्तराखंड की खूबसूरती बयां करती है तो वहीं इंटरवल के बाद 5 साल पहले आई बाढ़ के सीन डरा देने वाले हैं।जिसमें करीब 4 हजार लोग मारे गए थे और 70 हजार से ज्यादा लोग लापता हुए थे, और इस सब के बीच एक खूबसूरत प्रेम कहानी भी पनपती है मुस्लिम लड़के और हिंदू लड़की की कहानी, और बस यही वजह है फिल्म के विरोध की जिसे लव जेहाद के नाम पर प्रचारित किया गया,और ये सब किया गया संस्कृति बचाने के नाम पर जबकि सही में उत्तराखंड की संस्कृति बचाने की कोशिश की गई होती तो शायद ये आपदा ही नहीं आती। मेरा एक साथी जो सिर्फ इस वजह से फिल्म देखने नहीं गया कि उसने किसी से सुना था कि मंदिर के सामने किसिंग सीन फिल्माया गया है, को जब मैंने बताया कि फिल्म बहुत अच्छी है और आखिर में मुस्लिम लड़का हिंदू लड़की और उसके बाप को बचाने के लिए अपनी जान देता है, तो वो बोला ऐसा कहीं होता है क्या? ये तो बस कहानी है सच में कहां होता है?
शायद वो सही था ये बस कहानी है और वो किसिंग सीन सच है, वो कहानी का हिस्सा नहीं है।समझ नहीं आता कि ये नफरत खत्म क्यों नहीं होती इतनी बड़ी-बड़ी आपदाएं आई हैं इस नफरत को अपने साथ बहाकर क्यों नहीं ले जातीं?
पता नहीं हम सब दूसरों की कही बात का इतनी जल्दी विश्वास क्यों कर लेते हैं, अपनी नजर को कम क्यों आंकते हैं? क्यों चीजों को खुद देखकर फैसला नहीं करते? बकौल साहिर लुधियानवी


ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र ही तो है
क्यूँ देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम

Tuesday, 9 October 2018

#MeToo से डरिए मत, इसका साथ दीजिए ये आपके लिए ही तो है...


#MeToo अब अखबार के आखिरी पन्ने से निकलकर पहले पन्ने तक आ पहुंचा है। लेकिन ये सफर कोई एक दिन का नहीं है, फेसबुक पोस्ट या महज ट्वीटभर का भी नहीं है। ये मुश्किल सफर सालों का है, बस वो महौल अब मिला है। जिसमें लड़कियां खुल कर बोल पा रही हैं और सोशल मीडिया का सही इस्तेमाल कर रही हैं।

दरअसल ये आवाज उठाने वालों की सफलता है और आवाज दबाने वालों की मजबूरी। कि उन्हें अनमने मन से ही सही पर उनके सुर में सुर मिलाना पड़ रहा है। इस कैंपेन के जरिए रोज होते नए खुलासे और हर दिन कथित शरीफों के चेहरे से उतरते नकाबों से कुछ लोग भयभीत नजर आ रह हैं। अगर इस सच्चाई और दो-तीन दिन के कैंपेन से डर लग रहा है तो इतना डर जरूरी है, क्योंकि ये लड़कियां इसी डर के साथ सालों से जीती आ रही हैं। कुछ लोग कह रहे हैं कि अब तो लड़कियों को देखने से भी डर लगता है, सुंदरता की तारीफ भी करने में सोचना पड़ेगा। जो लोग ऐसा सोचते हैं उन्हें शायद घूरने और निहारने में फर्क ही नहीं पता। ताजमहल को आप निहारने जाते हैं घूरने नहीं, और उसे अपना बनाने का ख्याल भी नहीं आता होगा। लेकिन कुछ लोग होते होंगे जो उसे कब्जाने का सोचते होंगे लेकिन नहीं कर पाते, क्योंकि उनकी औकात से बाहर है वो। और ये कैंपेन भी उन्हीं लोगों के लिए है जिससे ये लोग खिलते हुए फूल को सिर्फ निहार सकें उसे तोड़कर मुर्झाने की कोशिश ना करें।

कुछ लोगों को ये भी शिकायत है कि जब हुआ तब क्यों नहीं बोले अब क्यों बोल रहे हैं? जब हम किसी कंपनी में काम कर रहे होतें हैं तो उसकी कमियों के बार में उस समय नहीं बोल पाते हालांकि उस समय बोलना चाहिेए लेकिन बहुत सी आर्थिक मजबूरियां होती हैं इसीलिए जब हम वो कंपनी छोड़ते तो इस्तीफे में ये मेंशन कर देते हैं कि हम तो जा रहे हैं लेकिन आप यहां गलत थे। इसमें गलत क्या है? किसी को न्याय देने के लिए अदालतें भी तो सालों लगा देती हैं तो उसे भी तो न्याय ही माना जाता है। और देरी का ये सवाल तो अनुराग कश्यप से या उन जैसे कईयों से पूछा जाना चाहिए कि जब आपके सामने किसी के साथ कुछ गलत हो रहा था तो आप क्यों चुप थे आप जिस वजह या डर से चुप थे वो वजह या डर उस लड़की से तो कम ही रहा होगा जो उस दर्द से गुजरी होगी। लेकिन इस लड़ाई को ज्यादा महीन बनाने से भी बचना होगा, अगर अनुराग कश्यप और उन जैसे लोग गलती मान रहे हैं और अब साथ आ रहे हैं तो इसका भी स्वागत करना चाहिए। बड़ी बात ये है कि गलत के खिलाफ देर से ही सही लेकिन विरोध होना चाहिए। गांधी जी ने भी एक बार कहा था कि महिलाओं को ऐसी घटनाओं को छिपाने का रिवाज खत्म करना होगा। लोग खुलकर चर्चा करेंगे तो ऐसी घटनाएं खत्म होंगी।

आखिर में इस कैंपेन के खिलाफ कुतर्क गढ़ने और इसके जवाब में नया हैशटैग ट्रेंड कराने वालों के लिए बस इतना ही, कि अगर आप सही हैं तो डरिए मत इसका साथ दीजिए आखिर ये कैंपेन उस माहौल के लिए ही तो है जिसमें आपकी बहन, बेटी, बहू या आपकी कोई भी महिला मित्र जिसे आप सैकड़ों चिंताओं और हिदायतों के साथ काम पर भेजते हैं वो वहां खुलकर सांस ले सके, वहां बेफिक्री से काम कर सके, बार-बार अपने दुपट्टे की चिंता किए बगैर, किसी की घूरती नजरों की चिंता के बगैर...

Saturday, 15 September 2018

चलिए अपने आस-पास बिखरी हिंदी को महसूस करते हैं...

हिंदी दिवस पर मिलने वाली शुभकामनाओं से लगा कि जिसे हम हर दिन जीते हैं उसके लिए एक दिन क्या शुभकामनाएं? अंग्रेजी भले ही जरूरी हो या जरूरी बना दी गई हो। भले ही ब्रो, डूड, गायस, सिस्टर ने हमें घेर लिया हो लेकिन वो स्वाद नहीं आ पाता जो भाई सुन, बहन और दोस्त की पुकार पर आता है। और ‘मां’ का मुकाबला तो मॉम से कभी हो ही नहीं सकता। किसी मोहतरमा का शाय होना, ब्लश करना ठीक ही है लेकिन शर्माना, लजाना ज्यादा अच्छा लगता है। आज तक यही समझ नहीं आया कि लड़की कैसे स्मार्ट हो जाती है और लड़का क्यों हैंडसम? हम तो बस ‘आप अच्छे लग रहे हैं’ से काम चला लेते हैं।

I love you कानों में उतना शहद नहीं घोल पाता जितना ‘’सुनिये! बहुत अच्छे लगते हैं आप हमें’’ सुनकर ‘’दिल बाग-बाग हो जाता है।‘’दरअसल आई लव यू प्यार का चरम है उसके आगे कुछ नहीं। हमारे यहां बहुत अच्छे लगते हैं आप हमें, से लेकर हमें आपसे मुहब्बत है, तक का सफर बड़ा सुहाना है।

और ये जो आपका sorry और thank you है ना, वो बस उठते-बैठते, राह चलते और छींक आने तक ही काम करता है। बड़ी गलती पर इसका असर ना के बराबर है उसके लिए ‘मुझसे गलती हुई है मुझे माफ कर दीजिए’ हमेशा असर करेगा। वैसे ही जैसे किसी को मदद के बाद आपका ‘तहे दिल से धन्यवाद’ या आपका ‘बहुत शुक्रिया’ कहना असर करता है। Hug करना है, सुनते ही गंदी सी फीलिंग आती है वहीं ‘गले लगना है’ सुनकर सुकून मिलता है और लगकर तसल्ली। आपके पास रिश्तों की बड़ी कमी है इसीलिए सिर्फ आंटी हैं हमारे पास मामी, चाची और मॉसी की पूरी फौज है। आपके पास रिश्तों की कमी तो है ही इज्जत देने के लिए भी कुछ शब्दों की कमी है।इसलिए सिर्फ you है, छोटा हो बड़ा हो या साथ का हो। हमारे पास किसी को सम्मान देने के लिए आप है, थोड़ा अपनापन है तो तुम भी है और मां और भगवान जैसी विकट वाली श्रद्धा के लिए ‘तू’ भी है। इसीलिए किसी ने लिखा भी है...
"मैं हिंदी बोलता हूं इसलिए आप ‘आप’ हैं वरना कब के YOU हो गए होते"
अंग्रेजी के ये कुछ शब्द Sorry, thank you फर्राटे से निकलते हैं, बिना फीलिंग के साथ इसीलिए असर भी कम होता है जबकि हिंदी के शब्दों के लिए थोड़ा ठहरना होता है और ठहराव के बाद निकली हर चीज़ खूब असर करती है। तो थोड़ा ठहरिए और बोल कर देखिए असर जरूर होगा।

Friday, 27 July 2018

सरकारी सिस्टम से हारे गोपालदास नीरज, पेंशन की इच्छा दिल में लिए ही दुनिया से चले गए


"जब तक मेरी पेंशन बहाल नहीं हो जाती, मैं इस दुनिया से जाने वाला नहीं हूं- गोपालदास नीरज
जब तक आप जाएंगे नहीं हम जागेंगे नहीं- सरकारी सिस्टम" 

गोपालदास नीरज चले गए और शायद उनकी आखिरी इच्छा अधूरी ही रह गई। दुनिया से अलविदा कहने से महज़ कुछ दिनों पहले ही उन्होंने ये बात कही थी।लेकिन उन्हें कहां पता था कि ये सरकारी सिस्टम है किसी के मरने के बाद ही जागता है। जरा सोचिए कितना मजबूर रहे होंगे गोपालदास नीरज और कितनी बड़ी रही होगी उनकी मजबूरी जो एक 93 साल के बुजुर्ग को उस हालत में कि जब वो दो कदम भी ठीक से ना चल पाते हों, को पेंशन के लिए 350 किमी दूर लखनऊ जाने को मजबूर किया हो।
इतनी परेशानी उठाने के बाद गोपालदास नीरज अपनी रुकी हुई पेंशन रिलीज करवाने की गुहार लगाने के लिए सीएम योगी से मिले और जब वापस लौटे तो उसी आश्वासन के साथ ''कि दिखवाता हूं, करवाता हूं।''इससे पहले भी नीरज करीब तीन बार मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखकर यश भारती पेंशन शुरू करने की गुहार लगा चुके थे। आखिरी बार उन्हें पेंशन मार्च 2017 में मिली थी। उसके बाद सरकार ने जांच के बाद रोक लगा दी। जांच के सवाल पर नीरज का कहना था कि मैं पदमभूषण, पदम श्री से सम्मानित कवि हूं। मेरे मामले में सरकार को क्या जांच करनी है?और अगर करनी भी है तो जल्दी करे इतने महीने से जांच ही तो चल रही है।
मगर अफसोस गोपालदास नीरज पेंशन की आस दिल में लिए ही चले गए और सिस्टम का तमाशा देखिए उनके जाते ही सरकार ने करीब डेढ़ साल से जांच के नाम पर अटकी यश भारती पेंशन से रोक हटा ली और कुछ नए नियम और 50 हजार की जगह 25 हजार राशि के साथ फिर से शुरू कर दी। साथ ही उनके नाम पर हर साल 5 नवोदित साहित्यकारों को पुरस्कार देने की घोषणा की है।
ये जांच नीरज जी के जीते-जी भी हो सकती थी लेकिन अगर हो जाती तो ये कैसे साबित होता कि ये सरकारी सिस्टम है किसी के जाने के बाद ही जागता है।

मान-पत्र मैं नहीं लिख सका
राजभवन के सम्मानों का...



Sunday, 22 July 2018

क्या राहुल गांधी प्रधानमंत्री के पास उनकी कुर्सी हथियाने गए थे?



लगता है मीडिया को गंभीर, जरूरी सवाल और अमन की ख़बरों में कोई खास दिलचस्पी है ही नहीं तभी उसने राहुल गांधी के सवालों को छोड़कर उनकी आंख पर फोकस किया। इस आंख के चक्कर में राजनीति के लिए ही सही लेकिन पीएम को गले लगाने की सुखद तस्वीर को भी पीछे छोड़ दिया। और मीडिया ही क्यों सदन के पास भी अमन की बात के लिए वक्त की कमी दिखती है। फारुख अब्दुला को सुनना सुखद था लेकिन लोकसभा अध्यक्ष को 9 बजने की चिंता ज्यादा दिखी।

राहुल गांधी के पीएम को गले लगाने को कोई नाटक बोल रहा है तो कोई बचकाना । लेकिन कम से कम हमारी नई पीढ़ी ने तो सदन में ऐसा नजारा पहली दफा देखा था। शायद यही वजह होगी कि इस नजारे के वक्त हमारे ऑफिस में लोग अपनी सीट छोड़कर ताली बजाने पर मजबूर हुए होंगे। यहां तक कि केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा भी सीट से उठकर ताली बजाते हुए नजर आए। हांलांकि बाद में इनमें से ही कईयों ने इसे बचकाना भी कहा। लेकिन पीएम मोदी ने राहुल गांधी की नकल बनाकर और गले मिलने को पीएम की कुर्सी हथियाने से जोड़कर हल्केपन का ही परिचय दिया। आप किसी से भी पूछेंगे तो कोई ये नहीं कहेगा कि राहुल गांधी कुर्सी के लिए वहां गए होंगे। ये बात अलग है कि पूरे दिन राहुल गांधी की आंख पर फोकस करने वाले टीवी ने मोदी की हाथ की हरकत पर फोकस नहीं किया। और लोकसभा अध्यक्ष बार-बार राहुल गांधी के गले लगाने को संसदीय आचरण के खिलाफ बताती रही। अगर ऐसा है तो राहुल गांधी के भाषण की शुरूआत में बीजेपी सांसदों का हिंदी में बोलो और भूकंप-भूकंप चिल्लाना क्या था?और इस बात का फैसला लोकसभा स्पीकर और देश के लोगों को ख़ुद करना होगा कि फ़ारूक़ अब्दुल्ला का भाषण ज्यादा जरूरी है या रामदास अठावले का?

वैसे पक्ष-विपक्ष में मेल-मिलाप और आपसी सौहार्द का वक्त शायद बीत चुका है जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू विपक्ष के युवा नेता अटल बिहारी वाजपेयी को बधाई देते हैं और एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी भी करते हैं। अब तो बस विपक्षी नेता का मजाक ही बनाया जाता है।

Saturday, 7 July 2018

बेरोजगारों के लिए खुशख़बरी: अब आपको आंकड़ों में रोजगार मिलेगा!



कभी-कभी और कुछ चुनिंदा लोगों को इंटरव्यू देने वाले हमारे प्रधानमंत्री से एक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में जब रोजगार का सवाल पूछा गया तो प्रधानमंत्री ने कहा कि दरअसल रोजगार की कमी नहीं है दिक्कत ये है कि किसी के पास रोजगार के बारे में सटीक आंकड़े नहीं हैं। रोजगार मापने के पुराने औजार बेकार हो चुके हैं इसलिए नई अर्थव्यवस्था में रोजगार मापने के दूसरे उपकरण चाहिए। दरअसल सरकार रोजगार मापने के औजार वैसे ही बदलना चाहती है, जिस तरह से उसने जीडीपी मापने के पैमाने बदलकर भारत की वृद्धि दर दुनिया में सबसे ऊपर होने का प्रदर्शन कर रखा है।
दरअसल प्रधानमंत्री के इंटरव्यू के बाद मजाक शुरू हो जाता है सोशल मीडिया पर जोक बनने लगते हैं जैसे प्रधानमंत्री के पकोड़ा बेचने को रोजगार बताने वाले बयान पर हुआ। महीनों इस पर जोक बनते रहते रहे और पक्ष-विपक्ष इसमें ही उलझे रहे लेकिन कितना अच्छा होता कि इस पर बहस की जाती और प्रधानमंत्री से सवाल किया जाता कि अगर कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति पकोड़ा बेचने को मजबूर है तो वो रोजगार नहीं है और अगर किसी को यूपी-बिहार से दिल्ली आकर पकोड़ा बेचने को मजबूर होना पड़ता है तो वो भी रोजगार नहीं है। लेकिन सरकार को इससे कोई मतलब नहीं वो तो बस आंकड़ो में जीतनी हुई नजर आना चाहती है।

हो सकता है सरकार जो नई व्यवस्था लाने वाली है वो दो मोर्चों पर काम करे। एक तरफ आपको आंकड़ों में रोजगार बढ़ता हुआ दिखाया जाएगा और दूसरी तरफ आपको अखबारों में छप रही बेरोजगारों की लंबी लाइनों की तस्वीरों में कुछ कमी आए और रोजगार सिर्फ आकंड़ों पर नजर आए। बिल्कुल वैसे ही जैसे मध्यप्रदेश में आंकड़ों में किसान बहुत खुशहाल दिखाया जाता है लेकिन जब किसान आंदोलन के लिए सड़कों पर होता है तो शुरूआत मध्यप्रदेश से होती है और वहां किसानों की आत्महत्या में भी कोई कमी नहीं आई है।

आंकड़ों के बारे में अमेरिकी कथाकार मार्क ट्वेन शायद अंतिम बात कह गए हैं उनके मुताबिक ‘’झूठ तीन तरह के होते हैं झूठ, सफेद झूठ और आंकड़े।’’ और साहब यहां तो आंकड़े सरकारी होंगे तो हालात का अंदाजा आप खुद लगाइए।

Monday, 2 July 2018

सुनो हम कठुआ पर भी बोलेंगे, मंदसौर पर भी बोलेंगे तुम बस नफरत फैलाते रहो..



पिछले कई दिनों से मेरे इनबॉक्स में और पोस्ट पर कमेंट करके कुछ लोग बार-बार पूछ रहे हैं कि मंदसौर पर क्यों नहीं लिखते? समझ नहीं आता कि लिखने से क्या हो जाएगा क्योंकि उन्हें तो बस वही करना है जो वे करते आए हैं। मंदसौर में 7 साल की बच्ची के साथ जो हुआ वो बेहद डरावना है। इतना डरावना कि बच्ची की हालत देखकर डॉक्टर भी हिल गए। लेकिन एक तबका है जिसे इस तरह की घटना से कोई फर्क नहीं पड़ता उसे कोई सहानुभूति नहीं है ना मंदसौर की बच्ची से ना कठुआ की बच्ची से और ना आए दिन होने वाली रेप की शिकार बच्चियों से जिनकी खबरें मीडिया की सुर्खियां नहीं बन पाती। क्योंकि उसका काम तो बस ये देखना है कि कौन पत्रकार कौन नेता ऐसा है जिसने कठुआ पर आवाज उठाई मंदसौर पर नहीं जबकि ये लोग खुद ना कठुआ पर बोलते हैं ना मंदसौर पर। लेकिन सबसे बड़ा राष्ट्रभक्त बताते हैं। इन्हें मंदसौर की बच्ची से कोई मतलब नहीं इन्हें आरोपी इरफान से मतलब है। इसलिए ये लोग कठुआ और मंदसौर की तुलना कर रहे हैं लेकिन ये भूल रहे हैं कि कठुआ में आरोपियों को बचाने के लिए तिरंगा मार्च नहीं निकाला होता, पुलिस की ढिलाई नहीं होती तो कठुआ केस भी सुर्खियों में नहीं आता।

मंदसौर में बहुत कुछ सुकून देने वाला है बस नेताओं के बयानों को छोड़कर। जैसे घटना के विरोध में मुस्लिम समुदाय सड़कों पर उतरा। वक्फ अंजुमन इस्लाम कमिटी सदर के मोहम्मद यूनुस शेख के नेतृत्त्व में समुदाय ने मंदसौर एसपी मनोज सिंह को ज्ञापन सौंपा। उन्होंने कहा कि समुदाय में इस तरह के जघन्य अपराधी के लिए कोई जगह नहीं है। प्रदर्शन कर रहे लोगों ने मामले की फास्ट ट्रैक सुनवाई और दोषी के लिए मृत्युदंड की मांग की है। साथ ही फैसला किया कि अब दफ़्न के लिए 2 गज़ ज़मीन भी नसीब न होगी, कोई मौलाना इस हैवान की नमाज़-ए-जनाज़ा नहीं पढ़ाएगा। मंदसौर के वकीलों ने घोषणा की है कि वह आरोपी इरफान का केस नहीं लड़ेंगे। जरा सोचिए जैसे कठुआ में आरोपी के समर्थन में रैली निकली आरोपी विधायक के समर्थन में रैली निकली राम रहीम आसाराम के समर्थन में भी प्रदर्शन होते रहते हैं अगर ऐसी ही एक रैली इरफान के समर्थन में निकलती तब?


Thursday, 28 June 2018

एक होनहार छात्र को नफरत से बचाने की कोशिश...


डियर "हिमांशु" ये जो मैं लिख रहा हूं वो मुझे सावर्जनिक तौर पर नहीं लिखना चाहिए लेकिन तुम्हारी उम्र के ना जाने कितने बच्चों के मन में नफरत भरी जा रही है। तुम जिस RSS के स्कूल में पढ़ाई कर रहे हो या की है। मैं भी वहां कुछ साल पढ़ा हूं। वहां कई चीजें सिखाई जाती हैं कुछ अच्छी, कुछ बुरी तो अब तुम्हारे ऊपर है कि तुम वहां से क्या सीखते हो।वहां से किसी धर्म और उसके लोगों के प्रति नफरत मत सीखो, सीखना ही है तो उनका अनुशासन सीखो। 


तुम पढ़ाई में बहुत होशियार हो अच्छा तर्क करते हो लेकिन किसी भी चीज़ का दूसरा पहलू भी जानने की कोशिश करो। इसलिए खुद को इन नफरतों से दूर रखो और सकारात्मक रखो अब मैं तुमसे और क्या कहूं बस इतना ही कहूंगा कि खूब पढ़ो और फिर चीजों को समझने की कोशिश करो। इस रंगीन दुनिया को अपनी नजरों से देखो दूसरों की नज़रों से नहीं। अगर दूसरा कुछ गलत बताए तो सवाल करो? एक बार नहीं बार-बार करो। दूसरे धर्म के प्रति इतनी नफरत दिल में भरकर तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। भले ही अपने दिल और दिमाग के सारे दरवाजे बंद कर लो लेकिन एक खिड़की हमेशा खुली रखना जहां से ताजी हवा और नए विचार आ सकें। अभी तुम्हारी उम्र सीखने की है अभी से हिंदू-मुस्लिम में ना बंटो।ऩफरत इंसान के दिमाग को कुंद कर देती है।और बस एक बार अपने आस-पास के लोगों को देखो क्या उनके दिलों में भी एक दूसरे के लिए इतनी नफरत है जितनी नेताओं द्वारा बताई जा रही है और सोशल मीडिया पर फैलाई जा रही है।

Sunday, 27 May 2018

कोबरा पोस्ट के स्टिंग ऑपरेशन के दूसरे भाग में इस बार मीडिया के बड़े चैनलों ने किया शर्मसार



कोबरा पोस्ट के स्टिंग ऑपरेशन के पहले भाग में मीडिया जगत के जितने बड़े नाम सामने आए थे उसे कहीं ज्यादा बड़े और चौंकाने वाले नाम सामने आए हैं दूसरे भाग में। जिसमें टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडिया टुडे, हिंदुस्तान टाइम्स, ज़ी न्यूज़, स्टार इंडिया, एबीपी न्यूज़, दैनिक जागरण, रेडियो वन, रेड FM, लोकमत, बिग FM, के न्यूज़, इंडिया वॉयस, द न्यू इंडियन एक्सप्रेस, भारत समाचार और हां आपका सबसे चहेती मोबाइल एप्लीकेशन Paytm
पेटीएम पर स्टिंग में जो बड़ी बात सामने आई है वो ये कि किसी खास एजेंडे को जन-जन तक पहुंचाने के लिए अब टीवी चैनलों या अख़बारों की जरूरत नहीं है। एक साधारण से मोबाइल ऐप के जरिए भी आप पलक झपकते ही वो कर सकते हैं जो मीडिया की मदद से नहीं किया जा सकता। स्टिंग में पेटीएम के बड़े अधिकारी ना केवल बीजेपी विचारधारा को स्वीकारते नजर आए बल्कि संघ के साथ कंपनी के संबंधों की भी बात सामने आ गई। यहां तक कि इस बात की पोल भी खुल गई कि पेटीएम जैसे जानी-मानी ऐप पर भी उपभोक्ताओं का डाटा सुरक्षित नहीं है।

इस मामले में एक बात जो बहुत निराश करने वाली है वो है एक मीडिया समूह द्वारा दूसरे की प्रेस आजादी पर अंकुश लगाने के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाना और उसपर दिल्ली हाईकोर्ट का कोबरापोस्ट की डॉक्यूमेंट्री के प्रदर्शन पर रोक लगाना।
ये बिल्कुल वैसे ही है जैसे एक आदमी रिश्वत लेते हुए पकड़ा जाए और वो इस बात के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाए कि अगर ये ख़बर लोगों तक पहुंची तो उसकी साख खराब हो जाएगी। और कोर्ट इस पर स्टे भी दे दे।
वेब पोर्टल कोबरापोस्ट शुक्रवार, 25 मई को 3 बजे दोपहर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपनी इस खोजी रिपोर्ट को सार्वजनिक करने वाला था. लेकिन, गुरुवार शाम को जस्टिस वाल्मीकि जे. मेहता ने इस डॉक्यूमेंट्री को जारी करने पर एकतरफा रोक लगाने का आदेश दे दिया.

इस पूरे स्टिंग में सब कुछ निराश करने वाला नहीं है कुछ उम्मीद की किरणें भी हैं जो तारीफ के काबिल हैं जैसे बर्तमान पत्रिका और दैनिक संवाद ने एजेंडा चलाने से साफ मना कर दिया। सबसे ज्यादा तारीफ के हकदार हैं इस पूरे स्टिंग को करने वाले खोजी पत्रकार पुष्प शर्मा, जो निराशा के इस दौर में उम्मीद की किरण बनकर सामने आए हैं।

Friday, 25 May 2018

पेट्रोल-डीज़ल दोनों महंगे होते हैं लेेकिन चर्चा पेट्रोल की ही क्यों होती है?





पेट्रोल-डीज़ल की बढ़ती कीमतों पर जब भी चर्चा की जाती है तब पूरी चर्चा घूम फिर कर पेट्रोल पर ही आकर ठहर जाती है।जैसा आमतौर लिखा जाता है पेट्रोल-डीज़लवैसे ही डीज़ल हमेशा पीछे छूट जाता है। 
सोशल मीडिया में तरह-तरह के जोक बनते हैं, बाइकों के अंतिम संस्कार के फोटो वायरल होने लगते हैं। और डीज़ल पर चर्चा ही नहीं हो पाती। चर्चा नहीं होती कि डीज़ल की कीमतें बढ़ने से किन-किन चीज़ों पर असर पड़ता है। पेट्रोल महंगा होने से ज्यादातर कार और बाइक चलाने वाले ही प्रभावित होते हैं जबकि डीज़ल से खाने-पीने की चीज़ों समेत कई जरूरी समान महंगे होते हैं। और सबसे ज्यादा मार पड़ती है किसानों पर। किसानों की आय बढ़ाने की दावा करने वाली सरकार को इस बात का आभास ही नहीं है कि इससे किसानों की माली हालत कितनी खराब हो रही है। वर्तमान युग में पूरी तरह ट्रैक्टरों के माध्यम से ही जुताई का काम किया जाता है और डीजल की कीमतें बढ़ने से फसल की लागत बढ़नी तय है। ''कितना हास्यसपद है कि किसान जो फसल पैदा करता है उसका मूल्य सरकार हर साल खुद तय करती है लेकिन उस फसल पर लगने वाली लागत डीज़ल की कीमतों के साथ बढ़ जाती है और उसकी मार किसान पर ही पड़ती है।''
डीज़ल और पेट्रोल लगातार ऊंचाईयों के नई कीर्तिमान स्थापित कर रहा है और सरकार बार-बार यही दोहरा रही है कि तेल की कीमतें उसके हाथ में नहीं हैं लेकिन अगले ही पल सरकार बेनकाब हो जाती है जब कर्नाटक चुनाव के समय 19 दिन तक कीमतें नहीं बढ़ती और चुनाव के बाद से लगातार 13 दिन तक कीमतें बढ़ती जाती हैं।

तेल की बढ़ती कीमतों से प्रभावित हो रहे लोगों और किसानों की परेशानी छिपाने के लिए कुछ बेहूदा तर्क बीजेपी आईटी सेल की तरफ से वायरल किए जा रहे हैं जिसमें कहा जा रहा है कि मोदी सरकार ईरान का कर्ज चुका रही है। दरअसल ये सरासर झूठ है बल्कि सच ये है सरकार ने करीब 11 बार एक्साइज ड्यूटी को बढ़ाय़ा है जबकि महज एक बार घटाया है। जिससे पिछले 4 साल में सरकार ने अपनी और तेल कंपनियों की जेबें खूब भरी हैं।

एक और बेहुदा तर्क दिया जा रहा है कि लोग 600-700 रुपये की शराब की बोतल आसानी से खरीद लेते हैं और पेट्रोल-डीज़ल खरीदने में दिक्कत होती है। वो लोग भूल रहे हैं कि पेट्रोल-डीज़ल जरूरतहै और शराब शौक। और जिसकी जरूरतें पूरी हो जाती हैं वही लोग शौक पूरा कर पाते हैं।

Thursday, 24 May 2018

21वीं सदी का भारत, सबसे साक्षर राज्य केरल और पानी के लिए दलितों से भेदभाव




ये तस्वीर आज के भारत की है, उस राज्य केरल की है जो सबसे ज्यादा साक्षर है। लेकिन कभी-कभी जातिवाद की गहरी जड़ों को शिक्षा नाम के बहुत पैने हथियार से भी नहीं काटा जा सकता। क्योंकि उसकी जड़ें हमारी कल्पना से भी गहरी हैं।
तिरुअंतपुरम के वरकाला में एक तालाब है जो आस-पास के लोगों के लिए पीने के पानी का जरिया है लेकिन अब इस तालाब में कुरवा और ठंड़ार जाति के लोगों को पानी पीने से रोक दिया गया है और वह इसलिए क्योंकि इस तालाब का इस्तेमाल अन्य बड़ी जातियों के लोग जैसे नायर, एझावा और मुस्लिम करते हैं। इस वजह से करीब 10 दलित परिवार तालाब के बाहर गड्ढे से पानी निकालकर पीने को मजबूर हैं। वहीं इलाके के वार्ड पार्षद इस छुआ-छूत को आधिकारिक जामा पहनाते हुए दलितों के लिए अलग कुआं बनवाने का फैसला कर लेते हैं
सबसे दिलचस्प बात ये है कि इस इलाके के विधायक और काउंसिलर सत्तारूढ़ पार्टी सीपीएम से हैं और वो चुप हैं क्योंकि उन्हें अपनी जान का खतरा है। हद है, जिसकी सरकार है उसमें ही गलत को गलत कहने की हिम्मत नहीं है। 
आप सोचिए 21वीं सदी का भारत, सबसे साक्षर राज्य केरल और वहां पर प्यास बुझाने के लिए तालाब का सहारा और उस पर भी दलितों से भेदभाव। क्यों किसी भी नेता के लिए लोगों को साफ पानी देना चुनावी मुद्दा नहीं बनता?

क्योंकि लोग हिंदू-मुस्लिम की राजनीति में उलझे हुए हैं और नेता जी को अपनी सभा में रखी मेज पर बिसलेरी की बोतल रखी मिल जाती है और वे पानी पीकर जोर से नारा लगा देते हैं ‘भारत माता की जय'

Tuesday, 22 May 2018

जब राजीव गांधी ने बचाई थी अटल बिहारी वाजपेयी की जान!



आज जब राजनीति और राजनीति में शामिल लोगों के बीच कटुता बढ़ती जा रही है। तब राजनेताओं के शिष्टाचार के भी कई किस्से इतिहास में दर्ज हैं। ऐसा ही एक किस्सा है जब राजीव गांधी की हत्या के बाद पत्रकार करन थापर ने वाजपेयी जी को फोन करके पूछा कि क्या वो राजीव जी के बारे में बात करना चाहेंगे तो करन को वाजपेयी जी ने घर पर बुलाया और करन से बोले कि कोई और बात करने से पहले वो कुछ बताना चाहते हैं।

अटल बिहारी ने करन से कहा, “जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे तो उन्हें कहीं से पता चला कि मुझे किडनी की बीमारी है जिसका इलाज विदेश में होगा तब राजीव ने मुझे दफ्तर बुलाया और कहा कि वो मुझे संयुक्त राष्ट्र जा रहे भारतीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल कर रहे हैं और उम्मीद जताई कि मैं इस मौके का इस्तेमाल जरूरी इलाज के लिए करूंगा। मैं न्यूयॉर्क गया और अपना इलाज करवाया और आज जो ये मैं तुम्हारे सामने बैठा हूं, यही एक कारण हैकि मैं आज ज़िंदा हूं। वाजपेयी जी ने इसके आगे कहा, “तो तुम्हें समझ में आ गई मेरी दिक्कत क्या है। करन मैं आज विपक्ष में हूं और लोग चाहते हैं कि मैं एक विरोधी की तरह राजीव गांधी के बारे में बात करूं। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता मैं सिर्फ वो बात करना चाहता हूं जो राजीव ने मेरे लिए किया अगर तुम्हारे लिए ये ठीक है तो मैं बात करने के लिए तैयार हूं अगर नहीं है तो मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं है।

वहीं आज के दौर में हम पक्ष और विपक्ष किसी से इस व्यवहार की उम्मीद कर ही नहीं सकते। अब तो साल-दर-साल कटुता बढ़ती ही जा रही है। एक वक्त था जब करियर के शीर्ष पर बैठे प्रधानमंत्री नेहरू संसद में अटल जी जैसे नए लड़के को जवाब देते थे और बाद में पीठ ठोक कर प्रोत्साहित भी करते थे। उस ज़माने में वाजपेयी बैक बेंचर हुआ करते थे लेकिन नेहरू बहुत ध्यान से वाजपेयी द्वारा उठाए गए मुद्दों को सुना करते थे। अब की तरह विपक्ष का मजाक बनाने का रिवाज तब शायद नहीं था।


Thursday, 17 May 2018

'एक पार्टी लगातार जीत रही है लोकतंत्र हार रहा है और सब खामोश हैं'


एक पार्टी देश के लोकतंत्र को लगातार कमजोर करने का काम कर रही है। सभी संवैधानिक संस्थाओं को अपनी तरह से इस्तेमाल कर रही है। और कोई अफसोस कोई सफाई भी नहीं दे रही दरअसल उसे सफाई देने की जरूरत ही नहीं पड़ रही क्योंकि उसका काम करने के लिए बहुत लोग हैं जो बिना कहे सफाई दिए जा रहे हैं। इनमें सिर्फ उसके समर्थक नहीं बल्कि बड़े पत्रकार, बैंकर, बुद्धिजीवी और युवा वर्ग शामिल है, जिन्हें कोई मतलब नहीं कि सरकार रोजगार क्यों पैदा नहीं कर पा रही? उसे नीरव, माल्या, मेहुल चौकसी से राफेल और व्यापम से भी कोई मतलब नहीं वो बस अपनी पार्टी को जीतते हुए देखना चाहता है किसी भी कीमत पर। क्योंकि उसे समझाया दिया गया है कि हम ही तुम्हारी आखरी उम्मीद हैं। बीजेपी का ये नया समर्थक वर्ग उसके हर गलत काम में उसका बचाव करता नजर आता है।जैसे ही कोई सवाल करता है ये तुरंत उसे याद दिलाता है कि जैसा कांग्रेस ने किया वैसा उसके साथ हो रहा है, जो कांग्रेस ने बोया वो काट रही है। अरे भाई कांग्रेस के साथ जो हो रहा है वो ठीक है आप देखिए आपके साथ क्या हो रहा है? आपके लोकतंत्र का आपकी सहमति से गला घोंटा जा रहा है और आप खुश हो रहे हैं, समर्थन में दलीलें दे रहे हैं। कल को अगर बीजेपी इमरजेंसी लगा दे तब भी आप यही कहेंगे कांग्रेस ने भी तो लगाई थी अब बीजेपी ने लगा दी तो क्या गलत किया? कुछ गलत नहीं किया लेकिन जिस तरह से एक आदमी को इतना ताकतवर बना दिया गया है कि चुनाव के बाद अगर पार्टी को बहुमत ना मिले तो कहा जाता है कि अमित शाह हैं ना सरकार बना ही लेंगे। लोग सोचते हैं कि अमित शाह ताकतवर बन रहे हैं तो इससे हमें क्या नुकसान है। वो ये भूल रहे हैं कि कि जो आदमी ताकत पाने के लिए आप से हाथ मिलाएगा है वो ताकत पाने के बाद पलट कर जरूर आएगा।और फिर वो अपने ‘मन की बात’ करेगा। और आपको सुननी ही पड़ेगी।
बीजेपी ने गोवा, मेघालय, मणिपुर और अब कर्नाटक में जिस तरह से सरकार बनाई है उसने ये दिखा दिया कि सत्ताधारी पार्टी जब चुनावों में खेलती है तो वो सिर्फ 11 खिलाड़ियों के साथ नहीं खेलती बल्कि दो अंपायरों के साथ भी खेलती है।

Friday, 11 May 2018

''प्रधानमंत्री जी शायद आपके हाथ इतिहास की गलत किताब लग गई है''




''इतिहास में उलझाकर वर्तमान खराब करना भी एक कला है''..और इस कला का प्रदर्शन बखूबी किया जा रहा है कुछ धर्म के ठेकेदारों द्वारा, मौजूदा सरकार द्वारा और हमारे प्रधानमंत्री द्वारा। ये सभी जनता को इतिहास से बहार क्यों नहीं आने देना चाहते क्योंकि शायद वर्तमान में बताने लायक कुछ है ही नहीं, अगर होता तो चुनावी भाषणों में बीजेपी और प्रधानमंत्री अपनी सरकार की 4 साल की उपलब्धियों का ढोल पीटते नजर आते। क्यों प्रधानमंत्री जीएसटी से होने वाले फायदों पर बात नहीं करते? क्यों नोटबंदी से देश में आए क्रांतिकारी बदलाव की बात नहीं करते? प्रधानमंत्री हमेशा इतिहास के गलियारे में ही टहलते हुए क्यों नजर आते हैं, जहां उनकी मुलाकात हमेशा नेहरू से ही हो जाती है। और जब वहां से निकलते हैं तो झूठ बोलते हैं और झूठ भी ऐसा जो तुरंत पकड़ा भी जाता है। कर्नाटक में प्रचार की शुरूआत में ही प्रधानमंत्री ने फील्ड मार्शल करिअप्पा और जनरल थिमैया को लेकर झूठ कहा जब एक जनसभा में प्रधानमंत्री ने हाथ उठाकर भीड़ से पूछा-  बताइये भाइयो बहनों कोई कांग्रेसी नेता भगत सिंह और उनके साथियों से जेल में मिलने गया था? लोग सोच ही रहे थे कि जवाहरलाल नेहरू ने तो अपनी आत्मकथा में भगत सिंह से लाहौर जेल में हुई मुलाकात का जिक्र किया है....लेकिन तभी प्रधानमंत्री दुगने जोश से सवाल फिर दोहरा दिया...मैने जितना इतिहास पढ़ा है, मुझे पता है कि कोई नहीं गया था। आप बताइए भाइयो-बहनों कुछ गलत हूं तो मुझे सही कीजिए। फिर लोगों ने सोचना ही बंद कर दिया कि अब प्रधानमंत्री को कौन ठीक करे।
दरअसल यह मुलाकात 1929 में हुई थी, जब असेंबली में बम धमाके के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को गिरफ्तार किया गया था. इस किताब के पेज नंबर 204 के आखिरी पैराग्राफ में नेहरू ने लिखा है,


जब जेल में भूख हड़ताल को महीना भर हुआ, उस वक्त मैं लाहौर में ही था. मुझे जेल में कुछ कैदियों से मिलने की इजाज़त मिली और मैंने इसका फायदा उठाया. मैंने पहली बार भगत सिंह, जतीन्द्रनाथ दास और कुछ अन्यों को देखा. वे सब बेहद कमज़ोर थे और बिस्तर पर थे और उनके लिए बात करना भी मुश्किल था.

भगत सिंह चेहरे से आकर्षक और समझदार थे और अपेक्षाकृत शांत दिख रहे थे. उनमें किसी तरह का गुस्सा नहीं दिखाई दे रहा था. उन्होंने बेहद सौम्य तरीके से बात की लेकिन मुझे लगता है कि कोई ऐसा व्यक्ति जो महीने भर से अनशन पर हो, वो आध्यात्मिक और सौम्य दिखेगा ही. जतिन दास किसी युवती की तरह सौम्य और शालीन दिख रहे थे. जब मैंने उन्हें देखा तब वे काफी पीड़ा में लग रहे थे. अनशन के 61वें दिन उनकी मृत्यु हो गयी थी.
‘’मिस्टर प्राइममिनिस्टर आप लाख कोशिश कर लें लेकिन इतिहास नहीं बदला सकते लेकिन अगर आपकी नीयत ठीक होगी तो इतिहास से सीख कर भविष्य जरूर सुधार सकते हैं’’

Tuesday, 8 May 2018

'प्रधानमंत्री जी आप अच्छी बात कहते हैं और खुद ही भूल जाते हैं'





कहते हैं कि इश्क और चुनावी जंगमें सब जायज़ है। शायद इस कहावत को हमारे प्रधानमंत्री ने बहुत गंभीरता से अपना लिया है तभी विदेशों में बड़ी समझदारी का परिचय देने वाले प्रधानमंत्री मोदी चुनावी मोडमें आते ही अपने द्वारा ही कही अच्छी बात भूल जाते हैं।
मिस्टर प्राइम मिनस्टर आप लंदन में रेप के मामलों पर राजनीति ना करने की सलाह दे रहे थे और कर्नाटक पहुंचते ही खुद रेप पर राजनीति करने लगे। कांग्रेस ने तो शायद आपकी की उस सीख को गंभीरता से ले लिया। मगर अफसोस आप खुद भूल गए। आपने कांग्रेस के कैंडल मार्च पर बोलते हुए कहा कि मैं कांग्रेस के उन लोगों से पूछना चाहता हूँ जो दिल्ली में कैंडल मार्च निकाल रहे थे वे तब कहाँ थे जब बीदर में दलित लड़की का बलात्कार हुआ था। लंदन में जब आपने कहा था कि रेप के मामले में हिंदू-मुस्लिम एंगल नहीं निकालना चाहिए। हम सबको आपकी बात बड़ी अच्छी लगी थी, लेकिन कर्नाटक में तो आपने जाति तक निकाल ली।
वैसे दिल्ली में कैंडल मार्च निकालने वालों की बात जब आप कर रहे थे तब आप शायद खुद भूल गए दिल्ली में कैंडल मार्च तो बीजेपी नेताओं ने भी निकाला था क्या बीजेपी नेता बीदर भी गए थे?

इसी तरह जब आप कहते हैं कि हमारी सरकार ने अभी तक जितने भी बजट पेश किए हैं उनके केंद्र में हमेशा किसान ही रहा है...तब मिस्टर प्राइम मिनिस्टर आप फिर भूल जाते हैं कि आप जिस कर्नाटक और वहां के किसान को केंद्रमें रखने की बात कर रहे हैं..उसी कर्नाटक के पड़ोसी राज्य तमिलनाडू के किसान देश, मीडिया और राजनीति के केंद्रदिल्ली में महीनों डेरा डाले रहे। लेकिन आपकी नजर नहीं पड़ी।

आप बीजेपी के लिए बार-बार कर्नाटक जा रहे हैं, एक दिन में तीन-तीन रैली कर रहे हैं, किसानों की बात कर रहे हैं। और जब किसान आपसे मिलने की उम्मीद में दिल्ली आए थे, उन्होंने आपका ध्यान अपनी ओर करने के लिए क्या-क्या नहीं किया? सड़क पर खाना खाया, मूंह में चूहे दबाए लेकिन आपका ध्यान भंग नहीं हुआ। आप कहते हैं कि केंद्र सरकार ने नई फर्टिलाइज़र नीति तैयार की है, जिसके कारण अब किसान को खाद के लिए सड़कों पर घूमना नहीं पड़ रहा है लेकिन दिल्ली में आप से कुछ ही दूरी पर भीषण गर्मी में किसान नग्न होकर सड़क पर प्रदर्शन करते हैं। लेकिन आपके दफ्तर के दरवाजे बंद रहते हैं।
मिस्टर प्राइम मिनिस्टर आप बार-बार क्यों भूल जाते हैं कि आप किसानों के, आदिवासियों के, हर धर्म और जाति के प्रधानमंत्री हैं। आप पूरे देश के प्रधानमंत्री हैं। आप सिर्फ बीजेपी के स्टार प्रचारक नहीं हैं।

Saturday, 28 April 2018

अब जब आप लाल किला घूमने जाएंगे तो शायद आपसे पूछा जाए WOULD YOU LIKE.....



सरकारें निजीकरण को विकास का पैमाना मानती आई हैं। उन्हें लगता है कि हर चीज का विकास निजी हाथों में पहुंच कर ही होता हैशायद इसीलिए देश में पहली बार किसी ऐतिहासिक इमारत को निजी हाथों में पहुंचाने का काम किया गया है। हालांकि अभी लालकिले को 5 साल के लिए दिया गया है लेकिन अक्सर इस तरह के बदलाव पिछले दरवाजे से ही होते हैं। कहा जा रहा है कि सरकार ने लालकिले को नए सिरे से विकसित करने के लिए ये कदम उठाया है। लेकिन पुरानी और ऐतिहासिक चीजों को फिर से विकसित करने की नहीं संरक्षण की जरूरत होती है..और संरक्षण का काम तो सरकार खुद कर ही सकती है। और ये सरकार की गोद लेने वाली योजना तो समझ से परे है कौन आदमी, कौन सी कंपनी किसी चीज को गोद लेने के लिए पैसे देती है? फिर चाहे वो प्रधानमंत्री के कहने पर गांव गोद लेने वाले सांसद हों या बच्चे को गोद लेने की चाह रखने वाले दंपति। इसकी जगह अगर प्रधानमंत्री देश के बड़े उद्योग घरानों के मालिकों को लालकिले और ताजमहल जैसी इमारतों को गोद लेने की अपील करते और राजस्थान में भामाशाहोंके सम्मान की तर्ज पर उन सभी का लाल किले की देखभाल के लिए उसी लाल किले से सम्मान करते। लेकिन यहां सरकार ने डालमिया से 25 करोड़ की डील की क्योंकि मौजदा सरकार व्यापार में ज्यादा भरोसा करती है और डालमिया ग्रुप के सीईओ महेंद्र सिंघी ने कहा भी है कि हर पर्यटक हमारे लिए एक कस्टामर होगा

खैर अब जो होगा वो ये कि अब आने वाले 15 अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी एक ठेके पर दी हुई इमारत से देश को संबोधित करेंगे और विकसित करने के नाम पर लालकिले में पर्यटकों को कंपनी कुछ सुविधाएं देगी और उसकी मनमानी कीमत वहां आने वाले पर्यटकों से वसूली जाएगी। ठीक वैसे ही जैसे निजी बैंक वसूलते हैं जी सर, कैसे हैं सर, WOULD YOU LIKE A CUP OF TEA  टाइप मीठी बातों के लिए और इसके बदले में एक बचत खाता 5000 रुपये से खोला जाता है और वही बचत खाता सरकारी बैंक में 1000, 500 या जीरो बैलेंस पर ही खुल जाता है। बस सरकारी बैंक में कोई आपका नकली मुस्कराहट के साथ स्वागत करने के लिए नहीं होता। हो सकता है कुछ दिनों बाद जब आप लालकिला घूमने जाएं तो कोई मुस्कराता हुआ चेहरा आप से पूछे WOULD YOU LIKE.....

Friday, 27 April 2018

आप रेप के आरोपी हैं? कोई बात नहीं हम आपके समर्थन में रैली निकालेंगे और आपको बचा लेंगे..




देश में एक नई और गलत प्रथा शुरू होती जा रही है….ये प्रथा है आरोपियों को बचाने की प्रथाआरोपियों को बचाने के लिए उनके समर्थन में रैली निकालने और प्रदर्शन करने की प्रथा….कठुआ में 8 साल की बच्ची के साथ हुई हैविनयत के बाद आरोपियों के समर्थन में तिरंगे के साथ रैली निकाली गई और रैली में वंदे मातरम के नारे भी लगाए गएठीक वैसे ही उन्नाव में भी आरोपी बीजेपी विधायक के समर्थन में रैली निकाली गई…. इस दौरान रैली में लोग बड़े-बड़े बैनर लिए हुए थे, जिन पर लिखा था, ‘हमारा विधायक निर्दोष है।
रैली में महिलाओं से लेकर सैकड़ों पुरुषों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लियाजिसका नेतृत्व नगर पंचायत अध्यक्ष अनुज कुमार दीक्षित ने किया। दीक्षित ने इस बारे कहा, “यह हमारे विधायक को बदनाम करने की राजनीतिक साजिश है।

कठुआ मामले में भी हिंदू एकता मंच ने आरोपियों के समर्थन में रैली निकाली थी जिसमें जम्मू-कश्मीर सरकार में बीजेपी के दो मंत्री चौधरी लाल सिंह और चंद्र प्रकाश गंगा भी इस रैली का हिस्सा थे।

यहां बड़ा सवाल ये उठता है कि अगर बीजेपी नेताओं को अपनी पुलिस पर भरोसा नहीं है तो फिर उसके मंत्री महबूबा मुफ्ती की सरकार में क्या कर रहे हैं। हर किसी को पुलिस की जांच पर शक होता है, हिन्दुस्तान भर की पुलिस की विश्वसनीयता भी यही है तो भी क्या भीड़ तय करेगी कि वह क्या करे और उसके पीछे हिन्दू मुस्लिम का तर्क खड़ा किया जाएगा? क्या एक आठ साल की बच्ची की हत्या और बलात्कार के आरोपियों के पक्ष में भारत माता की जय के नारे लगेंगे?

अगर इसी तरह आरोपियों और अपराधियों को बचाने के लिए रैली निकाली जाती रही तो हो सकता है कि आरोपी बच जाएं लेकिन एक समाज के तौर हम आने वाली पीढ़ियों के दोषी तो बन ही जाएंगे जिसके लिए वे हमें शायद कभी माफ ना कर पाएं....