लगता है मीडिया को गंभीर, जरूरी सवाल और अमन की ख़बरों में कोई खास दिलचस्पी है ही नहीं तभी उसने राहुल गांधी के सवालों को छोड़कर उनकी आंख पर फोकस किया। इस आंख के चक्कर में राजनीति के लिए ही सही लेकिन पीएम को गले लगाने की सुखद तस्वीर को भी पीछे छोड़ दिया। और मीडिया ही क्यों सदन के पास भी अमन की बात के लिए वक्त की कमी दिखती है। फारुख अब्दुला को सुनना सुखद था लेकिन लोकसभा अध्यक्ष को 9 बजने की चिंता ज्यादा दिखी।
राहुल गांधी के पीएम को गले लगाने को कोई नाटक बोल रहा है तो कोई बचकाना । लेकिन कम से कम हमारी नई पीढ़ी ने तो सदन में ऐसा नजारा पहली दफा देखा था। शायद यही वजह होगी कि इस नजारे के वक्त हमारे ऑफिस में लोग अपनी सीट छोड़कर ताली बजाने पर मजबूर हुए होंगे। यहां तक कि केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा भी सीट से उठकर ताली बजाते हुए नजर आए। हांलांकि बाद में इनमें से ही कईयों ने इसे बचकाना भी कहा। लेकिन पीएम मोदी ने राहुल गांधी की नकल बनाकर और गले मिलने को पीएम की कुर्सी हथियाने से जोड़कर हल्केपन का ही परिचय दिया। आप किसी से भी पूछेंगे तो कोई ये नहीं कहेगा कि राहुल गांधी कुर्सी के लिए वहां गए होंगे। ये बात अलग है कि पूरे दिन राहुल गांधी की आंख पर फोकस करने वाले टीवी ने मोदी की हाथ की हरकत पर फोकस नहीं किया। और लोकसभा अध्यक्ष बार-बार राहुल गांधी के गले लगाने को संसदीय आचरण के खिलाफ बताती रही। अगर ऐसा है तो राहुल गांधी के भाषण की शुरूआत में बीजेपी सांसदों का हिंदी में बोलो और भूकंप-भूकंप चिल्लाना क्या था?और इस बात का फैसला लोकसभा स्पीकर और देश के लोगों को ख़ुद करना होगा कि फ़ारूक़ अब्दुल्ला का भाषण ज्यादा जरूरी है या रामदास अठावले का?
वैसे पक्ष-विपक्ष में मेल-मिलाप और आपसी सौहार्द का वक्त शायद बीत चुका है जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू विपक्ष के युवा नेता अटल बिहारी वाजपेयी को बधाई देते हैं और एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी भी करते हैं। अब तो बस विपक्षी नेता का मजाक ही बनाया जाता है।
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