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Friday, 11 May 2018

''प्रधानमंत्री जी शायद आपके हाथ इतिहास की गलत किताब लग गई है''




''इतिहास में उलझाकर वर्तमान खराब करना भी एक कला है''..और इस कला का प्रदर्शन बखूबी किया जा रहा है कुछ धर्म के ठेकेदारों द्वारा, मौजूदा सरकार द्वारा और हमारे प्रधानमंत्री द्वारा। ये सभी जनता को इतिहास से बहार क्यों नहीं आने देना चाहते क्योंकि शायद वर्तमान में बताने लायक कुछ है ही नहीं, अगर होता तो चुनावी भाषणों में बीजेपी और प्रधानमंत्री अपनी सरकार की 4 साल की उपलब्धियों का ढोल पीटते नजर आते। क्यों प्रधानमंत्री जीएसटी से होने वाले फायदों पर बात नहीं करते? क्यों नोटबंदी से देश में आए क्रांतिकारी बदलाव की बात नहीं करते? प्रधानमंत्री हमेशा इतिहास के गलियारे में ही टहलते हुए क्यों नजर आते हैं, जहां उनकी मुलाकात हमेशा नेहरू से ही हो जाती है। और जब वहां से निकलते हैं तो झूठ बोलते हैं और झूठ भी ऐसा जो तुरंत पकड़ा भी जाता है। कर्नाटक में प्रचार की शुरूआत में ही प्रधानमंत्री ने फील्ड मार्शल करिअप्पा और जनरल थिमैया को लेकर झूठ कहा जब एक जनसभा में प्रधानमंत्री ने हाथ उठाकर भीड़ से पूछा-  बताइये भाइयो बहनों कोई कांग्रेसी नेता भगत सिंह और उनके साथियों से जेल में मिलने गया था? लोग सोच ही रहे थे कि जवाहरलाल नेहरू ने तो अपनी आत्मकथा में भगत सिंह से लाहौर जेल में हुई मुलाकात का जिक्र किया है....लेकिन तभी प्रधानमंत्री दुगने जोश से सवाल फिर दोहरा दिया...मैने जितना इतिहास पढ़ा है, मुझे पता है कि कोई नहीं गया था। आप बताइए भाइयो-बहनों कुछ गलत हूं तो मुझे सही कीजिए। फिर लोगों ने सोचना ही बंद कर दिया कि अब प्रधानमंत्री को कौन ठीक करे।
दरअसल यह मुलाकात 1929 में हुई थी, जब असेंबली में बम धमाके के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को गिरफ्तार किया गया था. इस किताब के पेज नंबर 204 के आखिरी पैराग्राफ में नेहरू ने लिखा है,


जब जेल में भूख हड़ताल को महीना भर हुआ, उस वक्त मैं लाहौर में ही था. मुझे जेल में कुछ कैदियों से मिलने की इजाज़त मिली और मैंने इसका फायदा उठाया. मैंने पहली बार भगत सिंह, जतीन्द्रनाथ दास और कुछ अन्यों को देखा. वे सब बेहद कमज़ोर थे और बिस्तर पर थे और उनके लिए बात करना भी मुश्किल था.

भगत सिंह चेहरे से आकर्षक और समझदार थे और अपेक्षाकृत शांत दिख रहे थे. उनमें किसी तरह का गुस्सा नहीं दिखाई दे रहा था. उन्होंने बेहद सौम्य तरीके से बात की लेकिन मुझे लगता है कि कोई ऐसा व्यक्ति जो महीने भर से अनशन पर हो, वो आध्यात्मिक और सौम्य दिखेगा ही. जतिन दास किसी युवती की तरह सौम्य और शालीन दिख रहे थे. जब मैंने उन्हें देखा तब वे काफी पीड़ा में लग रहे थे. अनशन के 61वें दिन उनकी मृत्यु हो गयी थी.
‘’मिस्टर प्राइममिनिस्टर आप लाख कोशिश कर लें लेकिन इतिहास नहीं बदला सकते लेकिन अगर आपकी नीयत ठीक होगी तो इतिहास से सीख कर भविष्य जरूर सुधार सकते हैं’’

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