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Saturday, 31 March 2018

कोबरा पोस्ट का स्टिंग : मीडिया से 'पत्रकारिता' के सवाल और मीडिया खामोश!




एक ऐसे दौर में जब माफिया टाइप नेता पत्रकारों (सिर्फ पत्रकारों से) से डरे हुए हैं और खुद के डर को कम करने के लिए वे पत्रकारों की हत्या करवा रहे हैं…और मरने वाले पत्रकार की खबरें मीडिया में जगह भी नहीं बना पा रही हैं। तब कोबरापोस्ट के पत्रकार का अपनी जान जोखिम में डालकर बिकाउ मीडिया संस्थानों का सच सामने लाना निश्चित ही काबिले तारीफ है। इस स्टिंग से पता चलता है कि पैसों के लिए देश का मीडिया अपनी आवाज और कलम का भी सौदा कर सकता है।
कोबरापोस्ट के पहले पार्ट में जिन 17 मीडिया संस्थानों के नाम आए उनमें इंडिया टीवी, दैनिक जागरण, अमर उजाला, पंजाब केसरी, हिन्दी खबर, SAB ग्रुप, DNA, 9X टशन, UNI, समाचार प्लस, HNN 24×7, स्वतंत्र भारत, scoopwhoop, Rediff.com, इंडिया वॉच, आज (हिन्दी दैनिक), साधना प्राइम न्यूजशामिल हैं। इन सभी को सौदेबाजी में लिप्त पाया गया है। इन सभी मीडिया संस्थानों से जुड़े बड़े पदों पर काबिज लोगों की बातचीत इस स्टिंग ऑपरेशन में दिखाई गई है


वीडियो में आप देखेंगे कि ये पैसे के लिए सत्ताधारी दल के पक्ष में चुनावी हवा (लोकसभा चुनाव 2019) तैयार करने के लिए राजी होते नजर आए हैं। इसके अलावा, विपक्ष और विपक्षी दलों के बड़े नेताओं का दुष्प्रचार करके चरित्र हनन करने और उनके खिलाफ झूठी अफवाहें फैलाकर उनकी छवि को खराब करके, सत्ताधारी दल के पक्ष में माहौल बनाने की सौदेबाजी का भी खुलासा हुआ है।

वीडियो में देखेंगे कि ये राहुल गांधी को पप्पू, मायावती को बुआ/बहन जी, अखिलेश को बबुआ जैसे शब्दों से संबोधित कर खबर चलाने के लिए तैयार हैं। ऐसा इसलिए ताकि बार-बार ऐसे शब्दों का प्रयोग करते रहने पर जनता इन्हें गंभीरता से लेना छोड़ दे। आपने सोशल मीडिया पर फेकू नाम से प्रसिद्ध नरेंद्र मोदी को किसी टीवी या अखबार की हेडलाइन में फेकू शब्द कितनी बार देखा है? जिस तरह ये मीडिया घराने कुछ भी दिखाने के लिए तैयार हो गए। उसे देखकर तो ऐसा लगता है कि ये पैसे के लिए दंगे भी करवाने के लिए तैयार हो सकते हैं।
इतने बड़े नामों से सीधे टकराना सबके बस की बात नहीं है। लेकिन स्टिंग की तारीफ तो दूर मीडिया तो इसकी बात तक नहीं कर रहा..जिन मीडिया संस्थानों का इसमें नाम है उनका इसे ना दिखाना समझ में आता है लेकिन जिनके नाम नहीं हैं उनका इससे बचना हैरान करता है…इनके बचने की एक वजह शायद कोबरापोस्ट का दूसरा हिस्सा हो, जिसका अभी सामने आना बाकी है।
कोबरा पोस्ट के स्टिंग की चर्चा से नेताओं का बचना समझ आता है, मीडिया संस्थानों का भी बचना समझ आता है..लेकिन उन संस्थानों में काम कर रहे हजारों लोगों का इस पर खामोशी ओढ़ लेना समझ से परे है। कुछ लोग तो इसपर बोल ही नहीं रहे तो वहीं कुछ लोग उनके ही समर्थन में बोलने लगे हैं जिनका स्टिंग हुआ है। इन लोगों का कहना है कि हमने इनका नमक खाया है या खा रहे हैं तो कैसे बोलें? लेकिन ये लोग भूल रहे हैं कि इस नमक से ज्यादा कीमत उस भरोसे की है जो लोग पत्रकारिता या मीडिया पर करते हैं। हांलाकि इसमें थोड़ी गिरावट जरूर हुई है।

मेरे एक सीनियर हमेशा कहा करते थे कि ‘हमेशा अपने काम से प्यार करो संस्थान से नहीं’ लेकिन जहां हम लगातार काम करते हैं उस जगह से एक लगाव तो हो ही जाता है मुझे भी हो गया था लेकिन अब जब उसी चैनल को पैसे के लिए कुछ भी करने को, कुछ भी चलाने को बोलते हुए सुना तो शर्मिंदगी महसूस हुई। लेकिन एक सच ये भी है कि यहां मैंने बहुत कुछ सीखा है यहां से शुरुआत की है तो खास तो रहेगा ही लेकिन जो गलत है वो गलत है।
सबसे बड़ा सवाल मन में ये उठता है कि किसी घटना या भ्रष्टाचार की खबर तो मीडिया दिखा देगी लेकिन जब मीडिया में ही भ्रष्टाचार हो तो उनकी खबर कौन दिखाएगा? प्रेस फ्रीडम रैंकिंग (2017) में भारत का 180 देशों की सूची में 136वां स्थान है। इससे बुरा क्या हो सकता है?
दरअसल, हम ऐसे दौर में रह रहे हैं जहां लोगों में मीडिया का भरोसा दिन-ब-दिन कम होता जा रहा है। इसलिए हम सभी को हमेशा अपने अंदर की पत्रकारिता को बचाने की कोशिश करती रहनी पड़ेगी। क्योंकि खतरा बड़ा है। महशर बदायुनी का एक शेर याद आता है, “अब हवाएं ही करेंगी रौशनी का फैसला जिस दिए में जान होगी वो दिया रह जाएगा”।
मीडिया में ही कई लोगों को अक्सर कहते सुना है कि अब पत्रकारिता नहीं बची और ना कोई पत्रकार है। तब मुझे लगता है शायद उन्हें खुद पर ही भरोसा नहीं है। क्योंकि अगर होता तो कम से कम उनकी एक पत्रकार से तो जान-पहचान होती, जो कि वो खुद होते। कोबरापोस्ट के स्टिंग के बाद की चुप्पी सभी के लिए खतरनाक है राजनीति के लिए लोकतंत्र के लिए और पत्रकारिता के लिए तो है ही ।
तू जब राह से भटकेगा, मैं बोलूंगा
मुझको कुछ भी खटकेगा, मैं बोलूंगा
सच का लहजा थोड़ा टेढ़ा होता है,
तू कहने में अटकेगा, मैं बोलूंगा

Friday, 30 March 2018

दंगों के बीच अफवाहों के इस दौर में काश मौलाना राशिद की कही बात भी वायरल हो जाए



गुस्से में उबलकर बदला लेना आसान है लेकिन अपने दुख को दबाकर बदलाव की अपील करना हिम्मत का काम है। 
जरा सोचिए एक आदमी दंगे में अपना बेटा खो देता है और उसके सामने उसके बेटे की लाश पड़ी है तो उस समय उसके दिमाग में क्या चल रहा होगा..? जबरदस्त गुस्सा, बदले की भावना। लेकिन फिर भी वो आदमी शांति की बात करता है बदला ना लेने की बात करता है तो इसका मतलब इंसानियत अभी जिंदा है।   


बंगाल में रामनवमी पर दंगे हुए जो अभी भी चल रहे हैं। इन दंगों में चार लोगों की जान जा चुकी है।सैकड़ों लोग बेघर हो चुके हैं दुकाने घर जला दिए हैं। लेकिन नेता अब भी दंगों को भड़काने का काम कर रहे हैं।


दंगों की भेंट चढ़े चारों में से एक था सिबतुला राशिदी...मौलाना इमदादुल राशिदी का बेटा। मौलाना राशिदी आसनसोल की एक मस्जिद में इमाम हैं। और उनका बेटा सिबतुला 16 बरस का था। 27 मार्च की दोपहर से लापता था। बुधवार देर रात उसकी लाश मिली। ये देखकर इलाके मुसलमानों में जबदस्त गुस्सा था। और जब सिबतुला के घर वाले उसकी लाश को दफनाने ईदगाह मैदान पहुंचे तो वहां हजारों की भीड़ जुट गई। कुछ लोगों बदला लेने की बात शुरू कर दी। मौलाना राशिद को लगा मुसलमान बौखलाकर जवाबी हिंसा कर सकते हैं। 
वो भीड़ के सामने आए और उसके बाद जो कहा उसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। उन्होंने कहा कि अगर मेरे बेटे की मौत का बदला लेने की कोशिश की, तो मैं मस्जिद छोड़ दूंगा और ये शहर भी छोड़ दूंगा।
मौलाना राशिद का कहना है कि मैं अमन चाहता हूं मेरा बेटा तो मुझसे छीन लिया गया है। मैं नहीं चाहता कि कोई और परिवार अपने अपनों को खोए। मैं नहीं चाहता कि कोई और घर जले। मैं भीड़ से कह चुका हूं। अगर मेरे बेटे का बदला लेने के लिए कुछ किया जाता है, तो मैं आसनसोल छोड़कर चला जाऊंगा। अगर आप लोग मुझसे प्यार करते हैं, तो आप किसी पर अपनी एक उंगली भी नहीं उठाएंगे।
वहां मौजूद लोगों का कहना है कि जब राशिदी भीड़ के आगे खड़े होकर बोल रहे थे, तो वहां मौजूद कई लोग रोने लगे। उस समय माहौल बहुत गमगीन था। सुनने वाले ताज्जुब में थे। कि निर्दोष बेटे को खोने वाला बाप बदला नहीं चाहता, शांति चाहता है।
मौलाना राशिद की कही बात हिंदूओं और मुसलमानों को बार-बार सुननी चाहिए

रामनवमी के दिन बिहार, पश्चिम बंगाल और गुजरात में भड़की सांप्रदायिक हिंसा की लपटें दूसरे राज्यों में फैलती जा रही हैं। अब राजस्थान में भी तनाव का माहौल बन चुका है। तनावपूर्ण माहौल को देखते हुए राज्य के बूंदी में इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई हैं।

पता नहीं लोग ये बात समझेंगे कि दंगों में सबसे ज्यादा नुकसान अगर किसी का होता है तो वो आम जनता है का और सबसे ज्यादा फायदा नेताओं को होता है। 



लेकिन मौलाना राशिद ने इस बात को साबित कर दिया कि दंगों में सभी जानवर नहीं हुए हैं कुछ इंसान भी हैं। और उनसे ही उम्मीद भी है कि सब ठीक हो जाएगा। 

Friday, 23 March 2018

दिल्ली हाईकोर्ट ने ना केवल आप विधायकों की सदस्यता बचाई है, लोकतंत्र को भी बचाया है !



दिल्ली हाईकोर्ट (HC) ने ये साबित कर दिया कि जब कभी लोकतंत्र की कोई संस्था उसे कमजोर करने की कोशिश करती है तब उसी लोकतंत्र की दूसरी संस्था उसे बचाने और मजबूत करने का काम करती है।
दिल्ली हाईकोर्ट ने आम आदमी पार्टी (AAP) के 20 विधायकों को बड़ी राहत देते हुए उनकी सदस्यता बहाल कर दी है। इसके साथ ही राष्ट्रपति के फैसले को रद्द कर दिया और कोर्ट ने चुनाव आयोग को मामले में फिर से सुनवाई करने को कहा है। कोर्ट के फैसले के बाद सभी 20 विधायक बने रहेंगे।
मुख्य चुनाव आयुक्त (ECI) अचल कुमार ज्योति ने अपने कार्यकाल के आखिरी समय में जिस तरह से जाते-जाते जल्दी में फैसला दिया और राष्ट्रपति महोदय ने जिस तरह से उस पर मोहर लगाई वो हैरान करने वाला था। दिल्ली के 20 विधानसभा को बिना विधायक के कर देना क्या छोटी बात है? कई राज्यों में लाभ के पद के मामले चल रहे हैं लेकिन फैसला सिर्फ एक सरकार के खिलाफ ही आता है।
साल 2006 में शीला दीक्षित ने 19 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया। लाभ के पद का मामला आया तो कानून बनाकर 14 पदों को लाभ के पद की सूची से बाहर कर दिया। केजरीवाल ने भी यही किया। शीला के विधेयक को राष्ट्रपति को मंजूरी मिल गई, केजरीवाल के विधेयक को मंजूरी नहीं दी गई।
मार्च 2015 में दिल्ली में 21 विधायक संसदीय सचिव नियुक्त किए जाते हैं। जून 2015 में छत्तीसगढ़ में भी 11 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया जाता है। इनकी भी नियुक्ति HC से अवैध ठहराई जा चुकी है।
इस पर मीडिया रिपोर्टिंग भी हैरान कर देने वाली है। दिल्ली हाईकोर्ट के फैसला सुनाने से कुछ देर पहले आज तक पर एक पूरा पैनल बहस कर रहा था। चैनल ये मान कर चल रहा था कि फैसला आम आदमी पार्टी (AAP) के खिलाफ ही आएगा। चैनल ने ब्रेकिंग भी चलानी शुरू कर दी और बहस में हिस्सा ले रहे वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता ने अरविंद केजरीवाल की आलोचना भी शुरू कर दी। अंजना ओम कश्यप भी बुलंद आवाज के साथ ब्रेकिंग न्यूज पढ़ रही थीं।
तभी इसके विपरित खबर आती है और जब शो की एकंर अंजना ओम कश्यप ने बताया कि फैसला तो आम आदमी पार्टी के पक्ष में आया है तब सभी के सुर अचानक बदल गए।
कई लोग कह रहे हैं कि केजरीवाल आदर्श की राजनीति कर रहे हैं, इसलिए उन्हें 21 विधायकों को संसदीय सचिव नहीं बनाना चाहिए था, अगर आदर्श की राजनीति का पैमाना यही है तो बाकि मुख्यमंत्री क्या कर रहे हैं? क्या उनसे ऐसी राजनीति की उम्मीद नहीं है? दरअसल इस तरह के मामले राष्ट्रपति पद की गरिमा और चुनाव आयोग की साख को कम करने का ही काम करेंगे।

भगत सिंह: सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज





भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है. एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं. अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है. यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें. किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिंदुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है.
यह मार-काट इसलिए नहीं की गई कि फलां आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलां आदमी हिंदू है या सिख है या मुसलमान है. बस किसी व्यक्ति का सिख या हिंदू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था. जब स्थिति ऐसी हो तो हिंदुस्तान का ईश्वर ही मालिक है.

ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य बहुत अंधकारमय नजर आता है. इन धर्मोंने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है. और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे. इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है. और हमने देखा है कि इस अंधविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं.

कोई विरला ही हिंदू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठंडा रखता है, बाकी सब के सब अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डंडे लाठियां, तलवारें-छुरे हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सिर फोड़-फोड़कर मर जाते हैं. बाकी कुछ तो फांसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिए जाते हैं. इतना रक्तपात होने पर इन धर्मजनोंपर अंग्रेजी सरकार का डंडा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है.

यहां तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे सांप्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है. इस समय हिंदुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली. वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो समान राष्ट्रीयताऔर स्वराज-स्वराजके दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाए चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मांधता के बहाव में बह चले हैं.

सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो सांप्रदायिक आंदोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं. जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं. और सांप्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आई हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे. ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है.

दूसरे सज्जन जो सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं. पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था. आज बहुत ही गंदा हो गया है. यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौवल करवाते हैं. एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं. ऐसे लेखक बहुत कम हैं, जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत हो.

अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों के भीतर से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं मिटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है. यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि भारत का बनेगा क्या?’
सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है. दरअसल, भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है. भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धांत ताक पर रख देता है.

सच है, मरता क्या न करता. लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होना अत्यंत कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती. इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिए और जब तक सरकार बदल न जाए, चैन की सांस नहीं लेना चाहिए.

लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है. गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं. इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए. संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं. तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों में लेने का प्रयत्न करो. इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जाएंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी.

जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहां भी ऐसी ही स्थितियां थीं, वहां भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूतम-पैजार करते रहते थे. लेकिन जिस दिन से वहां श्रमिक-शासन हुआ, वहां का नक्शा ही बदल गया था. अब, वहां कभी दंगे नहीं हुए. अब वहां सभी को इंसानसमझा जाता है, ‘धर्मजननहीं. जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी. इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे. लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गई है और उनमें वर्ग-चेतना आ गई है इसलिए अब वहां से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आती.

इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों में एक बात बहुत खुशी की सुनने में आई. वह यह कि वहां दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन सभी हिंदू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे. यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे. वर्गीय-चेतना का यही सुंदर रास्ता है, जो सांप्रदायिक दंगे रोक सकता है.

यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से, जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं. उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से- हिंदू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन सभी को पहले इंसान समझते हैं, फिर भारतवासी. भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहरा है. भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए. उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं.

1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था. वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं. न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सबको मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता. इसलिए गदर पार्टी जैसे आंदोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फांसियों पर चढ़े और हिंदू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे.

इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं. झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुंदर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं. यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं. धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें.
हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताए इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमें बचा लेंगे।

शहीदे आजम भगत सिंह का यह आलेख जून, 1928 में किरती नामक पत्र में छपा था, जिसके लिए भगत सिंह उस वक्त लिखते थे।

Thursday, 22 March 2018

कविता: च से 'चिड़िया'





अकसर आंगन में दिख जाती थी गौरेया
बच्चे उड़ा कर हो जाते थे खुश
जब नहीं दिखती थी तब आटे की लोई से 
बना कर दी जाती थी 'चींचीं'
और बच्चे फिर हो जाते थे खुश
वक़्त की मार और बदलाव की बयार ने
दोनों को उड़ा दिया
बच्चे अब नहीं होते खुश
देखते हैं बस तस्वीरों में फोन की स्क्रीन पर
अब बस याद कर लेते हैं.. च से 'चिड़िया'




Wednesday, 14 March 2018

किसानों की इस सादगी भरे विरोध प्रदर्शन को क्यों ना सराहा जाए?



किसानों की इस सादगी भरे विरोध प्रदर्शन को क्यों ना सराहा जाए और क्यों ना उन लोगों को एक सबक के तौर पर देखा जाए जो अपनी मांगें मनवाने के लिए भी कई बार देश में अराजकता का माहौल पैदा करते आए हैं। जाट आरक्षण का आंदोलन और पद्मावत फिल्म विवाद इसी का उदाहरण हैं।

7 मार्च को करीब 35000 किसान नासिक से मुंबई तक का सफर पैदल तय करने निकलते हैं। एक साथ लाइन में जैसे कोई सेना की टुकड़ी निकलती है। बिना हुड़दंग काटे, बिना शोर मचाए। कोई नंगे पैर था तो किसी के एक पैर में चप्पल थी, खून से लथपथ पैर एक साथ आगे बढ़ रहे थे। ये सभी अपने घर वालों को पीछे छोड़कर इस उम्मीद में निकले थे कि बेखबर दुनिया के लोग उनकी बात सुनेंगे।


लेकिन किसी ने इन पर ध्यान नहीं दिया। मीडिया ने भी नहीं। तब चैनल वही कर रहे थे जो अकसर करते आए हैं और वो था किसी जरूरी खबर को दबाने के लिए गैरजरूरी मुद्दों को सामने लाने का काम। इन दिनों कोई किसी नेता को मेकअप पोत कर एंकरिंग करवा रहा था। तो कोई क्रिकेटर शमी की पारिवारिक समस्या को सुलझाने का काम कर रहा था।

लेकिन कहते हैं न कि चुप्पी बहुत शोर करती है, किसानों की चुप्पी ने भी वही किया। जब इनके पैरों के छाले फूटे, खून निकला, लोगों की सहानुभूति बढ़ी तो मीडिया भी जागा। हालांकि उसमें भी किसानों के किसान होने पर शक की खबरें ज्यादा थीं। जैसे कि ये सब किसान नहीं हैं, 35 हजार नहीं इतने किसान आये हैं..वगैरह वगैरह।
सोशल मीडिया पर कुछ BJP समर्थित फेसबुक ग्रुप में कुछ तस्वीरों के जरिए किसानों के आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश की गई। सवाल उठाए गए कि ये खेती छोड़कर यहां क्या कर रहे हैं और इन्हें झंडे और टोपी खरीदने के लिए पैसे किसने दिये? BJP की नेता और सांसद पूनम महाजन ने तो इन किसानों के लिए ये कह दिया कि महाराष्ट्र में प्रदर्शन कर रहे लोग किसान नहीं शहरी माओवादी हैं।


इस तरह के मैसेज बनाने और दूसरों को भेजने वालों थोड़ी तो शर्म करो। किसी की जिंदगी और मौत का मजाक मत बनाओ…क्या कोई एक कैप और एक झंडे के लिए इस गर्मी में 180 किमी पैदल चल सकता है..क्या तुम चल सकते हो?

किसानों ने अपने प्रदर्शन के दौरान मुंबई के लोगों के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए सुबह सड़कों पर जाम न लग जाये इसलिए रात को ही इस यात्रा को आगे बढ़ाया। इसके अलावा हाईस्कूल के छात्रों की सोमवार को परीक्षा होने के कारण भी किसानों ने रात को मार्च निकाला, जिससे छात्र जाम में फंसकर परीक्षा केंद्रों पर देर से ना पहुंचे।
किसानों के इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन का मुंबईवासियों ने भी दिल खोलकर स्वागत किया। किसानों की इस पैदल यात्रा को हर तबके के लोगों का समर्थन मिला। मुंबई पहुंचते ही इन किसानों के लिए हर धर्म के लोग आगे बढ़कर आए और हाथ से हाथ मिलाकर न सिर्फ किसानों की मांगों का समर्थन किया, बल्कि पानी, भोजन समेत कई तरह की व्यवस्थाएं किसानों के लिए कीं।

लेकिन ये किसानों का दुर्भाग्य है कि उन्हें अपने अधिकारों के लिये बार-बार आंदोलन करना पड़ता है। इस बार भी किसानों ने कहा है कि अगर हमारे साथ धोखा होता है तो हम फिर लौटेंगे।
उम्मीद की जानी चाहिए कि अब अन्नदाताओं के साथ धोखा नहीं होगा, लेकिन जिस तरह से इन किसानों ने 180 किमी की पैदल यात्रा की और मांगें मानने के बाद चुपचाप वापस चले गए उससे देश के लोगों का दिल तो जीत ही लिया और विरोध करने का सही तरीका भी बता दिया।

Monday, 12 March 2018

सवालों का सामना करते राहुल गांधी और मीडिया का सौतेला व्यवहार



सिंगापुर दौरे पर गए राहुल गांधी एक इंटरव्यू में जब फंसते दिखाई दिए तो मीडिया ने वो तुरंत लपक लिया और चलाया कि राहुल गांधी की बोलती बंद। लेकिन सिंगापुर में ही राहुल गांधी ने बचे हुए सवालों का जवाब देने के लिए अपनी फ्लाइट छोड़ दी और इस खबर का जिक्र तक ना होना थोड़ा अखरता है। जब एंकर ने कहा कि हमारे पास सवाल बहुत है सर, लेकिन आपके पास समय की कमी है आपकी फ्लाइट है। जिस पर राहुल गांधी ने कहा- तो क्या हुआ.. अगली फ्लाइट से चला जाऊंगा आप पूछिए सवाल।


 “किसी व्यक्ति की योग्यता इस बात से मापी जा सकती कि उसने कितने सवालों के सही जवाब दिए लेकिन उसकी हिम्मत का पता इस बात से जरूर लगाया जा सकता है कि उसने कितने सवालों का सामना किया। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसके पास सारे सवालों के जबाव हों लेकिन ऐसे कम लोग हैं जो सभी सवालों का सामना करते हैं।”
हमारे PM नरेंद्र मोदी भी 2014 से पहले सवालों का सामना करने वालों में से एक थे लेकिन तब से अब तक 4 साल हो गए एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की। एक-दो चैनलों को ही इंटरव्यू दिए और उन इंटरव्यू में पूछे गए सवालों का स्तर किसी से छिपा नहीं है। वहीं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी देश में कम इंटरव्यू देते हैं लेकिन विदेश में तीखे सवालों का सामना करते दिखाई दे रहे हैं।
राहुल गांधी भले ही कम बोल पाते हों मोदी की तरह परिपक्व नेता नहीं हैं लेकिन मीडिया से तो यही उम्मीद की जाती है कि जो जैसा है वैसा तो दिखाया जाए। आप अगर  पक्ष लेते दिखाई देंगे तो जिसका आप पक्ष ले रहे हैं उसे तो फायदा होगा लेकिन आपकी छवि और लोगों में आपकी विश्वसनियता में जरूर कमी आएगी।

Wednesday, 7 March 2018

BJP के भगत सिंह और भगत सिंह के लेनिन


‘रुको अभी एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से बात कर रहा है’
ये बात भगतसिंह ने कही थी..इसमे पहले क्रांतिकारी खुद भगत सिंह थे और दूसरे थे (Vladimir Lenin) व्लादमिर लेनिन…और ये बात उस समय कही गई थी जब जेलर भगत सिंह को फांसी के लिए बुलाने पहुंचा था।

भगत सिंह लेनिन से किस कदर प्रभावित थे इसका अंदाजा एक और घटना से लगाया जा सकता है। फांसी दिए जाने से दो घंटे पहले उनके वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिलने पहुंचे थे। भगत सिंह अपनी छोटी सी कोठरी में में चक्कर लगा रहे थे। उन्होंने मुस्करा कर मेहता को स्वागत किया और पूछा कि आप मेरी किताब ‘रिवॉल्युशनरी लेनिन’ लाए या नहीं? जब मेहता ने उन्हें किताब दी तो वो उसे उसी समय पढ़ने लगे मानो उनके पास अब ज्यादा समय न बचा हो। कितना गहरा रहा होगा लेनिन से भगत सिंह का विचारों का रिश्ता, कि अपने आखिरी समय में भी लेनिन को पढ़ना चाहते थे।

जिन व्लादमिर लेनिन से भगत सिंह इतने प्रभावित थे और भगत सिंह से पीएम मोदी खुद को प्रभावित बताते हैं अब वही लेनिन BJP समर्थकों को अखरने लगे हैं। दरअसल त्रिपुरा में BJP ने सभी को चौंकाते हुए विधानसभा चुनावों में बड़ी जीत दर्ज की और वाम दलों का बरसों पुराना किला ढहा दिया। राजधानी अगरतला से लेकर दिल्ली तक, इस जीत की धमक सुनाई दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे विचारधारा की जीत बताया।
लेकिन जीत का ये उत्साह और खबरें अभी ठंडी भी नहीं हुई थीं कि त्रिपुरा से आए वीडियो और तस्वीरों ने सभी का ध्यान खींच लिया। इस वीडियो में BJP की टोपी पहने कार्यकर्ताओं के बीच एक JCB मशीन लेनिन की एक प्रतिमा को तोड़ने की कोशिश कर रही है।

जिसके बाद मूर्ति तोड़ने का सिलसिला शुरू हुआ और तमिलनाडु में बड़े समाज सुधारक रहे पेरियार की मूर्ति भी तोड़ दी गई वहीं पश्चिम बंगाल के कालीघाट में भारतीय जन संघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मूर्ति को नुकसान पहुंचाने की बात सामने आई है।
दुनिया में कई जगह सत्ता परिवर्तन के साथ मूर्तियां तोड़ी गई हैं। सत्ता परिवर्तन के साथ ही मूर्तियां न तोड़ी जाएं, इसका अच्छा उदाहरण भारत ही है। देश में दिल्ली और लखनऊ समेत कई जगहों पर आपको रानी विक्टोरिया से लेकर कई वायसराय और तमाम बड़े अंग्रेज अफसरों की मूर्तियां खड़ी दिखाई देंगी। आजादी के बाद ब्रिटिश साम्राज्य की इन निशानियों को तोड़ा नहीं गया, बल्कि शहर के सुरक्षित इलाके में पहुंचा दिया गया। वहीं पाकिस्तान में जिस तरह से सर गंगाराम की मूर्ति को तोड़ा गया, उस पर प्रसिद्ध कहानीकार मंटो ने बाकायदा एक कहानी लिखी थी।

जो लोग मूर्ति तोड़ने का समर्थन कर रहे हैं वे शायद ये भूल रहे हैं कि किसी के विचार मूर्ति तोड़ने या उस व्यक्ति को मारने से खत्म नहीं होते यही भूल अंग्रेजों ने की थी भगत सिंह को फांसी देकर और यही भूल की नाथूराम गोडसे जैसे लोगों ने जिन्होंने महात्मा गांधी को मार दिया। ये सोचकर की इनके विचार थम जाएंगे लेकिन किसी को मारने से किसी के विचार भला रुकते हैं कहीं? मूर्ति तोड़ने वालों को नहीं भूलना चाहिए कि कई देशों में महात्मा गांधी की भी मूर्ति लगी है जिसे कोई और नुकसान पहुंचा सकता है।
 दरअसल यही है भारत होने का मतलब जहां सत्ता बदलने के बाद इतिहास को तोड़ा नहीं जाता बल्कि उसे सहेज कर रखा जाता है अगली पीढ़ियों के लिए। लेकिन शायद ये बात कुछ लोगों के समझ में नहीं आएगी।