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Friday, 27 July 2018

सरकारी सिस्टम से हारे गोपालदास नीरज, पेंशन की इच्छा दिल में लिए ही दुनिया से चले गए


"जब तक मेरी पेंशन बहाल नहीं हो जाती, मैं इस दुनिया से जाने वाला नहीं हूं- गोपालदास नीरज
जब तक आप जाएंगे नहीं हम जागेंगे नहीं- सरकारी सिस्टम" 

गोपालदास नीरज चले गए और शायद उनकी आखिरी इच्छा अधूरी ही रह गई। दुनिया से अलविदा कहने से महज़ कुछ दिनों पहले ही उन्होंने ये बात कही थी।लेकिन उन्हें कहां पता था कि ये सरकारी सिस्टम है किसी के मरने के बाद ही जागता है। जरा सोचिए कितना मजबूर रहे होंगे गोपालदास नीरज और कितनी बड़ी रही होगी उनकी मजबूरी जो एक 93 साल के बुजुर्ग को उस हालत में कि जब वो दो कदम भी ठीक से ना चल पाते हों, को पेंशन के लिए 350 किमी दूर लखनऊ जाने को मजबूर किया हो।
इतनी परेशानी उठाने के बाद गोपालदास नीरज अपनी रुकी हुई पेंशन रिलीज करवाने की गुहार लगाने के लिए सीएम योगी से मिले और जब वापस लौटे तो उसी आश्वासन के साथ ''कि दिखवाता हूं, करवाता हूं।''इससे पहले भी नीरज करीब तीन बार मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखकर यश भारती पेंशन शुरू करने की गुहार लगा चुके थे। आखिरी बार उन्हें पेंशन मार्च 2017 में मिली थी। उसके बाद सरकार ने जांच के बाद रोक लगा दी। जांच के सवाल पर नीरज का कहना था कि मैं पदमभूषण, पदम श्री से सम्मानित कवि हूं। मेरे मामले में सरकार को क्या जांच करनी है?और अगर करनी भी है तो जल्दी करे इतने महीने से जांच ही तो चल रही है।
मगर अफसोस गोपालदास नीरज पेंशन की आस दिल में लिए ही चले गए और सिस्टम का तमाशा देखिए उनके जाते ही सरकार ने करीब डेढ़ साल से जांच के नाम पर अटकी यश भारती पेंशन से रोक हटा ली और कुछ नए नियम और 50 हजार की जगह 25 हजार राशि के साथ फिर से शुरू कर दी। साथ ही उनके नाम पर हर साल 5 नवोदित साहित्यकारों को पुरस्कार देने की घोषणा की है।
ये जांच नीरज जी के जीते-जी भी हो सकती थी लेकिन अगर हो जाती तो ये कैसे साबित होता कि ये सरकारी सिस्टम है किसी के जाने के बाद ही जागता है।

मान-पत्र मैं नहीं लिख सका
राजभवन के सम्मानों का...



Sunday, 22 July 2018

क्या राहुल गांधी प्रधानमंत्री के पास उनकी कुर्सी हथियाने गए थे?



लगता है मीडिया को गंभीर, जरूरी सवाल और अमन की ख़बरों में कोई खास दिलचस्पी है ही नहीं तभी उसने राहुल गांधी के सवालों को छोड़कर उनकी आंख पर फोकस किया। इस आंख के चक्कर में राजनीति के लिए ही सही लेकिन पीएम को गले लगाने की सुखद तस्वीर को भी पीछे छोड़ दिया। और मीडिया ही क्यों सदन के पास भी अमन की बात के लिए वक्त की कमी दिखती है। फारुख अब्दुला को सुनना सुखद था लेकिन लोकसभा अध्यक्ष को 9 बजने की चिंता ज्यादा दिखी।

राहुल गांधी के पीएम को गले लगाने को कोई नाटक बोल रहा है तो कोई बचकाना । लेकिन कम से कम हमारी नई पीढ़ी ने तो सदन में ऐसा नजारा पहली दफा देखा था। शायद यही वजह होगी कि इस नजारे के वक्त हमारे ऑफिस में लोग अपनी सीट छोड़कर ताली बजाने पर मजबूर हुए होंगे। यहां तक कि केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा भी सीट से उठकर ताली बजाते हुए नजर आए। हांलांकि बाद में इनमें से ही कईयों ने इसे बचकाना भी कहा। लेकिन पीएम मोदी ने राहुल गांधी की नकल बनाकर और गले मिलने को पीएम की कुर्सी हथियाने से जोड़कर हल्केपन का ही परिचय दिया। आप किसी से भी पूछेंगे तो कोई ये नहीं कहेगा कि राहुल गांधी कुर्सी के लिए वहां गए होंगे। ये बात अलग है कि पूरे दिन राहुल गांधी की आंख पर फोकस करने वाले टीवी ने मोदी की हाथ की हरकत पर फोकस नहीं किया। और लोकसभा अध्यक्ष बार-बार राहुल गांधी के गले लगाने को संसदीय आचरण के खिलाफ बताती रही। अगर ऐसा है तो राहुल गांधी के भाषण की शुरूआत में बीजेपी सांसदों का हिंदी में बोलो और भूकंप-भूकंप चिल्लाना क्या था?और इस बात का फैसला लोकसभा स्पीकर और देश के लोगों को ख़ुद करना होगा कि फ़ारूक़ अब्दुल्ला का भाषण ज्यादा जरूरी है या रामदास अठावले का?

वैसे पक्ष-विपक्ष में मेल-मिलाप और आपसी सौहार्द का वक्त शायद बीत चुका है जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू विपक्ष के युवा नेता अटल बिहारी वाजपेयी को बधाई देते हैं और एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी भी करते हैं। अब तो बस विपक्षी नेता का मजाक ही बनाया जाता है।

Saturday, 7 July 2018

बेरोजगारों के लिए खुशख़बरी: अब आपको आंकड़ों में रोजगार मिलेगा!



कभी-कभी और कुछ चुनिंदा लोगों को इंटरव्यू देने वाले हमारे प्रधानमंत्री से एक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में जब रोजगार का सवाल पूछा गया तो प्रधानमंत्री ने कहा कि दरअसल रोजगार की कमी नहीं है दिक्कत ये है कि किसी के पास रोजगार के बारे में सटीक आंकड़े नहीं हैं। रोजगार मापने के पुराने औजार बेकार हो चुके हैं इसलिए नई अर्थव्यवस्था में रोजगार मापने के दूसरे उपकरण चाहिए। दरअसल सरकार रोजगार मापने के औजार वैसे ही बदलना चाहती है, जिस तरह से उसने जीडीपी मापने के पैमाने बदलकर भारत की वृद्धि दर दुनिया में सबसे ऊपर होने का प्रदर्शन कर रखा है।
दरअसल प्रधानमंत्री के इंटरव्यू के बाद मजाक शुरू हो जाता है सोशल मीडिया पर जोक बनने लगते हैं जैसे प्रधानमंत्री के पकोड़ा बेचने को रोजगार बताने वाले बयान पर हुआ। महीनों इस पर जोक बनते रहते रहे और पक्ष-विपक्ष इसमें ही उलझे रहे लेकिन कितना अच्छा होता कि इस पर बहस की जाती और प्रधानमंत्री से सवाल किया जाता कि अगर कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति पकोड़ा बेचने को मजबूर है तो वो रोजगार नहीं है और अगर किसी को यूपी-बिहार से दिल्ली आकर पकोड़ा बेचने को मजबूर होना पड़ता है तो वो भी रोजगार नहीं है। लेकिन सरकार को इससे कोई मतलब नहीं वो तो बस आंकड़ो में जीतनी हुई नजर आना चाहती है।

हो सकता है सरकार जो नई व्यवस्था लाने वाली है वो दो मोर्चों पर काम करे। एक तरफ आपको आंकड़ों में रोजगार बढ़ता हुआ दिखाया जाएगा और दूसरी तरफ आपको अखबारों में छप रही बेरोजगारों की लंबी लाइनों की तस्वीरों में कुछ कमी आए और रोजगार सिर्फ आकंड़ों पर नजर आए। बिल्कुल वैसे ही जैसे मध्यप्रदेश में आंकड़ों में किसान बहुत खुशहाल दिखाया जाता है लेकिन जब किसान आंदोलन के लिए सड़कों पर होता है तो शुरूआत मध्यप्रदेश से होती है और वहां किसानों की आत्महत्या में भी कोई कमी नहीं आई है।

आंकड़ों के बारे में अमेरिकी कथाकार मार्क ट्वेन शायद अंतिम बात कह गए हैं उनके मुताबिक ‘’झूठ तीन तरह के होते हैं झूठ, सफेद झूठ और आंकड़े।’’ और साहब यहां तो आंकड़े सरकारी होंगे तो हालात का अंदाजा आप खुद लगाइए।

Monday, 2 July 2018

सुनो हम कठुआ पर भी बोलेंगे, मंदसौर पर भी बोलेंगे तुम बस नफरत फैलाते रहो..



पिछले कई दिनों से मेरे इनबॉक्स में और पोस्ट पर कमेंट करके कुछ लोग बार-बार पूछ रहे हैं कि मंदसौर पर क्यों नहीं लिखते? समझ नहीं आता कि लिखने से क्या हो जाएगा क्योंकि उन्हें तो बस वही करना है जो वे करते आए हैं। मंदसौर में 7 साल की बच्ची के साथ जो हुआ वो बेहद डरावना है। इतना डरावना कि बच्ची की हालत देखकर डॉक्टर भी हिल गए। लेकिन एक तबका है जिसे इस तरह की घटना से कोई फर्क नहीं पड़ता उसे कोई सहानुभूति नहीं है ना मंदसौर की बच्ची से ना कठुआ की बच्ची से और ना आए दिन होने वाली रेप की शिकार बच्चियों से जिनकी खबरें मीडिया की सुर्खियां नहीं बन पाती। क्योंकि उसका काम तो बस ये देखना है कि कौन पत्रकार कौन नेता ऐसा है जिसने कठुआ पर आवाज उठाई मंदसौर पर नहीं जबकि ये लोग खुद ना कठुआ पर बोलते हैं ना मंदसौर पर। लेकिन सबसे बड़ा राष्ट्रभक्त बताते हैं। इन्हें मंदसौर की बच्ची से कोई मतलब नहीं इन्हें आरोपी इरफान से मतलब है। इसलिए ये लोग कठुआ और मंदसौर की तुलना कर रहे हैं लेकिन ये भूल रहे हैं कि कठुआ में आरोपियों को बचाने के लिए तिरंगा मार्च नहीं निकाला होता, पुलिस की ढिलाई नहीं होती तो कठुआ केस भी सुर्खियों में नहीं आता।

मंदसौर में बहुत कुछ सुकून देने वाला है बस नेताओं के बयानों को छोड़कर। जैसे घटना के विरोध में मुस्लिम समुदाय सड़कों पर उतरा। वक्फ अंजुमन इस्लाम कमिटी सदर के मोहम्मद यूनुस शेख के नेतृत्त्व में समुदाय ने मंदसौर एसपी मनोज सिंह को ज्ञापन सौंपा। उन्होंने कहा कि समुदाय में इस तरह के जघन्य अपराधी के लिए कोई जगह नहीं है। प्रदर्शन कर रहे लोगों ने मामले की फास्ट ट्रैक सुनवाई और दोषी के लिए मृत्युदंड की मांग की है। साथ ही फैसला किया कि अब दफ़्न के लिए 2 गज़ ज़मीन भी नसीब न होगी, कोई मौलाना इस हैवान की नमाज़-ए-जनाज़ा नहीं पढ़ाएगा। मंदसौर के वकीलों ने घोषणा की है कि वह आरोपी इरफान का केस नहीं लड़ेंगे। जरा सोचिए जैसे कठुआ में आरोपी के समर्थन में रैली निकली आरोपी विधायक के समर्थन में रैली निकली राम रहीम आसाराम के समर्थन में भी प्रदर्शन होते रहते हैं अगर ऐसी ही एक रैली इरफान के समर्थन में निकलती तब?