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Monday, 12 February 2018

भारतीय सेना बनाम आरएसएस की ‘फौज’




भारतीय सेनाजिसका नाम सुनते ही हर भारतीय गर्व का अनुभव करता है उसे सम्मान की नजरों से देखता है और सेना पर गर्व करने की वजह भी है क्योंकि भारतीय सेना ने कई दफा बेहद मुश्किल हालातों में असाधारण शौर्य का परिचय दिया है। सेना पर गर्व करने की एक वजह ये भी ये भी है कि सेना खुद को अभी तक राजनीति से दूर रखने में कामयाब हो पायी है शायद इसीलिए आम जन को सेना पर विश्वास बाकि संस्थाओं से ज्यादा है, लेकिन हाल-फिलहाल की घटनाओं से लगता है कि भविष्य में राजनीति सेना को भी अपनी चपेट में ले लेगी फिर चाहे वो सर्जिकल स्ट्राइक के बाद बीजेपी का उसे चुनाव में भुनाना हो या विपक्ष का सर्जिकल स्ट्राइक पर संदेह जताना हो तब बीजेपी ने खूब हल्ला मचाया था कि विपक्ष सेना का मनोबल गिराने का काम कर रहा है। इसके बाद विपक्षी दल बैकफुट पर आ गए और कहा गया कि उन्हें सेना पर शक नहीं है बल्कि वे तो इसका राजनैतिक इस्तेमाल ना करने की बात कह रहे हैं। खैर जो भी हुआ हो लेकिन इस तरह की घटनाओं ने उसके मनोबल को ठेस तो पहुंचाई ही होगी।

लगता है अब फिर से वही काम किया जा रहा है और अब ये किया जा रहा है आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के द्वारा जो अपने कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने के चक्कर में खुद इतने उत्साह में आ गए कि सेना की कार्यक्षमता पर ही सवाल खड़े कर दिए। दरअसल मोहन भागवत पिछले 5 दिनों से मुजफ्फरपुर में डटे हुए थे जहां वे अपने कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाने का काम कर रहे थे जहां उन्होंने कहा कि सेना के लोग युद्ध की स्थिति में तैयार होने में छह से सात महीने का वक्त लगा सकते हैं लेकिन हमारे लोग यानी संघ के कार्यकर्ता दो से तीन दिन में ही तैयार हो जाएंगे। बिहार के मुजफ्फरपुर में आयोजित आरएसएस के पांच दिवसीय कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि संघ के लोग सेना की तरह ही अनुशासित होते हैं। उन्होंने कहा कि अगर संविधान और कानून इजाजत दे तो युद्ध की स्थिति में हमारे स्वयंसेवक सेना से भी पहले तैयार होकर मौके पर पहुंचने में सक्षम होंगे। मोहन भागवत ने ये भी कहा कि उनका संगठन पारिवारिक है लेकिन उसमें अनुशासन बहुत है। समझ नहीं आता कि मोहन भागवत अपनी इन बातों से कहना क्या चाहते हैं, मोहन भागवत अपना संगठन पारिवारिक बता रहे हैं संगठन में घोर अनुशासन होने की बात कर रहे हैं तो सेना कहां बाहर की है क्या वह पारिवारिक नहीं या उसमें अनुशासन नहीं है दरअसल सेना में हर वो चीज है जो एक देश के लिए जरूरी है बस नहीं है तो राजनीति। लेकिन राजनैतिक दल सेना को जबरन राजनीति में घसीटने का काम कर रहे हैं। आरएसएस और मोहन भागवत को ये हमेशा याद रखना चाहिए कि सेना हमेशा तिरंगे के साए में खड़ी होती है और हमेशा उसी के लिए लड़ती है लेकिन आप भगवा झंडे के नीचे खड़े होते हैं और यही सबसे बड़ा फर्क आपकी सेना में और भारतीय सेना में।

अगर थोड़ा इतिहास में झांका जाए तो ये वही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है जो आजादी से पहले और आजादी के बाद से लेकर 2002 तक तिरंगे की जगह भगवा झंडा फहराते आये हैं। साल 2002 में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के नागपुर कार्यालय में पहली दफा उस समय के एनडीए के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तिरंगा झंडा फहराने की शुरूआत की थी।

एक और वाक्या याद कीजिए जब अगस्त 2013 को नागपुर की एक निचली अदालत ने वर्ष 2001 के एक मामले में दोषी तीन आरोपियों को बाइज्जत बरी कर दिया था। इन तीनों आरोपियों बाबा मेंढे, रमेश कलम्बे और दिलीप चटवानी का जुर्म तथाकथित रूप से सिर्फ इतना था कि वे 26 जनवरी 2001 को नागपुर के रेशमीबाग स्थित आरएसएस मुख्यालय में घुसकर गणतंत्र दिवस पर तिरंगा झंडा फहराने के प्रयास में शामिल थे।
 राष्ट्रप्रेमी युवा दल के यह तीनों सदस्य दरअसल इस बात से नाराज थे कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे अवसरों पर भी आरएसएस के दफ्तरों में कभी तिरंगा नहीं फहराया जाता।

सवाल यह है कि जिस भवन पर यह युवक तिरंगा फहराना चाहते थे वो कोई मदरसा नहीं था. वो तो आरएसएस का राष्ट्रीय मुख्यालय था जिसकी देशभक्ति पर आज कोई भी सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता. तब फिर क्या वजह थी कि संघ इस कोशिश पर इतना तिलमिला गया कि तीनों युवकों पर मुकदमा दर्ज हो गया और 12 साल तक वो लड़के संघ के निशाने पर बने रहे।


मोहन भागवत के इस बयान का विरोध होना शुरू हो चुका है और होना भी चाहिए क्योंकि इस तरह के बयान सेना के मनोबल को कम करने का ही काम करेंगे जो कि ना तो सेना के लिए अच्छा है ना देश के लिए और ना खुद राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के लिए भी।

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